akadmiyata ka patan athwa shastriya apradh

अकादमीयता का पतन अथवा शास्त्रीय अपराध 

खबर है की भारतीय प्रशासनिक सेवा से हरियाणा काडर में आये है एक पूर्व अधिकारी ने पंडित लख्मीचंद की स्मृति में हाल ही में सोनीपत के निकट किसी स्थान पर आयोजित किये गये समारोह में कुछ ऐसा वक्तव्य दिया की साहित्य के इतिहासकारों को जाग जाना चाहिये और उनके बौद्धिक स्तर को लेकर होशियार रहना चाहिये. दिनांक २२ जनवरी के दैनिक भास्कर समाचारपत्र के रोहतक-पानीपत संस्करण में रिपोर्टर ने जो लिखा है वह इस प्रकार से है -'हरियाणा में सूर्य कवि पंडित लख्मीचंद का वही स्थान है जो राजस्थान में मीराबाई का, मध्यप्रदेश में तानसेन का, पंजाब में नानक व गोविन्द का व दक्षिण में चैतन्य महाप्रभु का.' इन्हीं के साथ समारोह में उपस्थित हरियाणा विधानसभा के अध्यक्ष का वक्तव्य भी कम रोचक नहीं है जो इतिहास, संस्कृति और साहित्य अध्ययन और जानकारी के उनके स्तर की और इंगित करता है. प्रस्तुत है इनकी वाणी से निकले है शब्द जिन्हें रिपोर्टर ने इस प्रकार प्रस्तुत किया -'हरियाणा प्राचीन समय में सांस्कृतिक परम्पराओं व समृधि में औरों से आगे था. उन्होनें सूर्य कवि पंडित लख्मीचंद की तुलना अंग्रेजी के  शय्क्स्पेअर व हिंदी के मुंशी प्रेमचंद व आचार्य चतुरसेन से की.' दूसरी खबर दिनांक २२ जनवरी के ही दैनिक त्रिबियून समाचारपत्र में 'पंडित भगवत दयाल ने देश की सेवा में समर्पित किया पूरा जीवन' शीर्षक से छपी है. कहा गया की पंडित भगवत दयाल शर्मा 'महान स्वतंत्रता सेनानी थे' जिन्होंने अपना सारा जीवन देशसेवा को समर्पित किया. आत्म-प्रशंसा और जातीय उत्त्थान के जिस युग में हम जी रहे हैं उसमें वस्तुस्थिति को बढ़ा-चढ़ा कर बताने और सामान्य से थोड़ा अधिक बारे लोगों को, जो कि संयोग से अथवा किसी और रूप में किसी कार्यविशेष के लिये जाने जाते हैं, एक जातीय प्रतीक या 'कास्ट आइकान' बना कर पेश करने कि प्रवृत्ति दिखाई देती है. इन दोनों ख़बरों में व्यक्त विचार जिन लोगों  के हैं उन्हें हम अल्पज्ञानी तो नहीं कह सकते और न ही वे साधारण लोग हैं. फिर भी उनके वक्तव्यों से जो बिम्ब बन रहे हैं वे असाधारण हैं, खासतौर पर साहित्य एवं संगीत के इतिहासकारों के लिये.

चूंकि हमारा विधान व्यक्ति पूजा का रहा है और वस्तुपरक व्यक्तित्व को हम चेष्टापूर्वक नज़रंदाज़ करते रहे हैं, इसलिये लख्मीचंद और भगवत दयाल शर्मा सरीखे व्यक्तिओं की तुलना जब अन्य महान हस्तिओं से प्रसंगवश, न कि ज्ञानवश, की जाने लगती है तो बात न केवल बेतुकी लगती है  बल्कि कथित हस्तिओं ने जो कुछ किया है उससे भी इनके प्रशंसकों एवं तीखी निगाह रखने वालों का भरोसा उठ  जाता  है. यह  महसूस होता  है कि अतिश्योक्ति  हुई  है. चूंकि हमारा विधान आदिकाल से ही व्यक्तिपूजा का रहा है इसीलिये हम वस्तुपरक व्यक्तित्व को नज़रंदाज़ करते हैं.पंडित लख्मीचंद की तुलना मीराबाई, तानसेन, नानक, गोविन्द और चैतन्य से करना एक शास्त्रीय अपराध जैसा लग रहा है. जिन-जिनका उआम इन दो महानुभावों ने लिया है वे अपने काल और समाज में बहुत ऊंचा दर्ज़ा रखते हैं. इन लोगों के इर्द-गिर्द जीवन के उच्च विचारों से उक्त फलसफा और सृजनात्मक साहित्य का अपार मात्र में निर्माण हुआ था. चैत्न्य महाप्रभु का असर भारत के पूर्वी राज्यों -यथा बंगाल और ओडिशा, में है उतना दक्षिण में नहीं है. और, वह भी जयदेव कृत गीतगोविन्द के कारण. राज्य सरकार में नियुक्त ये उच्चाधिकारी अखबार भी शायद ठीक से नहीं पढते अन्यथा इतना तो मालूम हो ही जाता है की मकर संक्रांति के दिन बंगाल के लोक गायक जगह-जगह आमजन के बीच महफिलों में गीतगोविन्द थे पदावलियाँ गया करते हैं. इन महानुभावों को अपने कथन में सावधानी बरतने की जरूत थी लेकिन भरी महफ़िल में इनकी गलतियां निकालने का सहस भला किस्में हो सकता है. वह भी जब आधी-अधूरी अनपढ़ पुलिस इनकी सुरक्षा में लगी हो!

वैसे भी इन दिनों हमारे समाज में साहित्यकार और समीक्षक बन नौकरशाह लोग और राजनेता ही तो अकादमीय पतन के लिये जिम्मेवार हैं. इन्हें शास्त्रीय और अकादमीय सम्मेलनों/समारोहों की अध्यक्षता करने का आजकल एक रिवाज हो गया है जिसका पालन बड़ी निष्ठा से किया जाता है. इसलिये की इन्हीं की बदौलत सरकार की तरफ से समारोह आदि आयोजित करने हेतु अग्रिम राशि दक्षिणा स्वरुप जो मिलती है!

ब्रिटेन में और अंग्रेजी साहित्य में शेइक्स्पेअर ल्यांकन बडे निष्पक्ष और तटस्थ तरीके से किया जाता रहा है. लेकिन जब भारत में अंग्रेजी भाषा का साहित्य और इतिहास पढ़ाने वाले आचार्य आदि शेइक्स्पेअर के नाटकों की विषयवस्तु, भाषा और व्याकरण पर शोध करते या करवाते हैं तो वे इनके केवल लिटरेरी पहलुओं पर ही तौबा कर लाते हैं. व्याकरण और वाक्य रचना की पद्यति पर जयादा ध्यान नहीं दिया जाता. किसी रचनाकार के विख्यात ही नहीं अपितु लोकमानस में स्थाई घर बनाने के लिये सिंटेक्स पर ध्यान देना जरूरी है जैसे की लख्मीचंद कृत अनेक सांगों में निहित रागिनियों का सिंटेक्स और तुलसीकृत दोहा और चौपाई. लख्मीचंद मुख्यतः मंचन से जुडे है व्यक्ति थे और उनके रचना संसार की गहराई को परखने के लिये हमें किसी शेइक्स्पेअर की तो बिलकुल ही जरूरत नहीं है. भारतीय सन्दर्भों और साहित्यालोचना में उपलब्ध तौर-तरीकों और विधिओं का भी हमारे यहाँ कोई अभाव नहीं है.........खासतौर पर संस्कृत साहित्य के मूल्यांकन की विधियों को अगर देखा जाये तो. शेइक्स्पेअर और लख्मीचंद में तुलना करने से पहले यह जानना जरूरी होता है की दोनों व्यक्तिओं के काल सन्दर्भ, सांस्कृतिक प्रस्ठभूमि और रचना प्रक्रियाएँ क्या रही हैं. ज्ञातव्य है की ये अलग तरीके की रही हैं. ब्रिटेन की सभ्यता के कृमिक विकास और सांस्कृतिक विरासत के परिप्रेक्ष्य में शेइक्स्पेअर के नाटकों जैसी विषयवस्तु यहाँ कतई नहीं उभरी और जिस स्थान और काल में उनका प्रस्तुतिकरण हुआ था वे अवस्थायें भी पंडित लख्मीचंद को सुलभ नहीं थीं. कहाँ तो ब्रिटेन की विक्टोरियन काल की समृधि और उनकी विश्वस्तरीय शक्ति और कहाँ भारत का मात्र एक उपनिवेश का दर्ज़ा और कमजोरी! हरियाणा के ठेठ देहाती माहौल में पले-बढ़े लोगों की सांस्कृतिक जरूरतों को पंडित लख्मीचंद ने जिस कौशल से अभावपूर्ण स्थितियों का सामना करते हुए हुनरमंद होकर पूरा किया था वाह काबिले तारीफ़ था. हमारे पास पंडित लख्मीचंद के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन करने की देशज पद्धतियाँ मौजूद हैं तो शेइक्स्पेअर का सन्दर्भ किस काम का ? और, फिर यह कितने लोगों की समझ मैं आने लायक होगा! शेइक्स्पेअर न भी हों तो लख्मीचंद का कद छोटा नहीं होने वाला. अफ़सोस इस बात का है की हमारे यहाँ लख्मीचंद की मंचीय विधा और कौशल का मूल्यांकन नहीं हुआ, उल्टा साहित्यक मूलांकन की भरमार हो गई. ऐसे में उनके कृतत्व का सम्पूरण और निष्पक्ष मूल्यांकन कैसे संभव होता ? मंचीय विधा का भी तो शास्त्रीय और अकादमीय मूल्यांकन होना चाहिये.

जहाँ तक पंडित भगवत दयाल शर्मा के स्वतंत्रता संघर्ष में वास्तविक योगदान और उनके उत्तर-व्यक्तित्व अर्थात भाव-व्यक्तित्व की बात है तो यही कहना उपयुक्त होगा कि इस बारे में शोधपरक सन्दर्भ स्रोत उपलब्ध नहीं हैं. उनका कद और व्यक्तित्व इतना विशाल तो नहीं था कि कोई शोधार्थी उन पर अपना समय जाया करता! जो भी जानकारी उपलब्ध है वाह पापुलर मीडिया में छापी हुई ख़बरों पर आधारित है. जहाँ तक उनकी राजनैतिक सूझ-बूझ का सवाल है वाह भी इतनी बड़ी नहीं हो सकती कि उन्हें एक 'आइकॉन' के रूप में स्थापित अथवा प्रतिष्ठित किया जाये. उनका कद सामान्य से थोड़ा बड़ा ही हो सकता है लेकिन वे किसी प्रकार कि दूरंदेशी, नये विचारों से सराबोर, तरक्कीयाफ्ता, वैज्ञानिक अभिरुचि अथवा सांस्कृतिक द्रष्टिकोण से परिपूर्ण बिल्कुल नहीं थे. उनके समय में हरियाणा कि सामान्य सी राजनीति में जोड़-घटा और दल-बदलू वाली घृणित प्रक्रियाओं की शुरुआत शायद नहीं हुई थी। इसके अलावा उन्होंने केवल निजी परिवार के लिये ही हित साधना की थी। बंधुओं ने उन्हें हर प्रकार से कोसा क्योंकि उन्होंने शक्ति संपन्न होकर उन्हें तंग किया न कि उनकी सहायता। सन 1994-95 में उनके भाई से जब बेरी में मैं मिला था तो उन्होंने भगवतदयाल की जी-भर कर आलोचना की थी और यह भी कहा कि उन्होंने पैतृक घर पर कब्जा कर लिया है और उन्हें संपत्ति से बेदखल कर दिया है। हालांकि हम इन दावों की सत्परकता की जांच नहीं कर रहे हैं लेकिन एक भाई का दूसरे भाई के प्रति आक्रोश तो झलकता ही है! वर्तमान विवाद एक मूर्ति लगाने के बारे में है जिसकी जड़ में वर्तमान मुख्यमंत्री की निजी महत्वाकांक्षा साकार होते देख भगवतदयाल की सुपुत्री ने विरोध जताया। रोहतक में स्थित मेडिकल कॉलेज के नाम के साथ पंडित भगवत दयाल शर्मा का नाम भी राजनैतिक फायदा उठाने की जुगत में तत्कालीन राजनेताओं ने जोड़ दिया था। ब्राह्मण समुदाय की ओर से इस बात का उन्हें कितना स्थायी फायदा मिला यह जगजाहिर है। लेकिन सरकार के इस कृत्य पर उस समय किसी ने अंगुली नहीं उठायी थी। सरकार के ऐसे कुकृत्यों पर अंगुली क्यूं नहीं उठती, यह सभी जानते हैं। सीधा सा मतलब है कि ऐसा कहने-लिखने वाले की खैर नहीं चाहे संविधान हमें अभिव्यक्ति का कितना भी हक क्यों न देता हो। प्रजातंत्र में भ्रष्टतंत्र और राजनैतिक गंुडागर्दी के बुरे नतीजों से डरते हुए सीधे-सादे लोग चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं और सोचते हैं नाम में क्या रखा है। राजनेता जो चाहे सो करते हैं। इसीलिये यदि मेडिकल कॉलेज के नये आउट-पेशेंट प्रभाग के सामने वर्तमान सरकार के मुखिया भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के पिता स्वर्गीय रणबीर सिंह की आवक्ष प्रतिमा अर्थात ‘बस्ट’ स्थापित किया जाता है तो जाहिर है राजनैतिक रूप से सक्रिय एवं आहत व्यक्ति अथवा धड़ा इसके एवज़ में भूलसुधार या कंपनशेसन की बात उठायेगा। मीडिया में रिपोर्टिंग होने के बाद प्रदेश में सक्रिय ब्राह्मण लॉबी ने अब इसे प्रतिष्ठा का मामला बना लिया है। सो एक समझौता हुआ कि अब मेडिकल कॉलेज में सरकारी खर्चे से पंडित भगवतदयाल शर्मा का बुत भी लगेगा। यानी कि रोहतक जैसे छोटे से शहर में पहले से मौजूद दो दर्जन बुतों में एक और की बढ़ोतरी। इसे कहते हैं ओछी सोच एवं इसी से प्रेरित भूलसुधार।

राजनीतिशास्त्र और साहित्य के इतिहास मंे रुचि रखने वालों के लिये उक्त दोनों घटनाओं का तटस्थ विश्लेषण करना जरूरी है ताकि प्रजातंत्र में नागरिकों में सही दिशा की ओर ले जाने वाली जागरूकता का उदय हो सके। अन्यथा वर्तमान प्रजातंत्र में एक आम नागरिक बंधक और गुलाम से अधिक की हैसियत नहीं रखता।

तीन महीने बाद की स्थिति:
 
आखिर, पंडित भगवत दयाल शर्मा कि सुपुत्री श्रीमती भारती शर्मा ने अथक मेहनत करके तीन काम कर ही लिये -अपने पिता कि प्रतिमा लगवाने का, पंडित जी के जीवन से सम्बंधित गतिविधियों के बारे, उन के बारे व्यक्त किये गये विचार जो कि ज्यादातर राजनीतिज्ञों के ही हैं और उनके जीवन से सम्बंधित कुछ पक्षों पर प्रकाश डालते छायाचित्रों का संकलन एवं एवं प्रदर्शनी का आयोजन -जिस दौरान पुस्तक का विमोचन भी किया गया. विमोचन समारोह बड़ा भव्य रहा जिसमें मोती लाल वोरा जी, भूपेंद्र सिंह हुडा जी, हरियाणा विधान सभा के अध्यक्ष श्री कुलदीप शर्मा और राज्य स्तरीय अन्य राजनेतागण उपस्थित हुये. अपने संबोधनों में किसी ने भी उनके कृत्यों पर ठीक से प्रकाश नहीं डाला. सभी लोग अतिप्रशंशा के शब्दों में डूबे नज़र आये. मान लिया कि उनका कुछ योगदान था तो उसे संक्षेप में ठीक से बताया जाना चाहिये था. भारती जी से भी यह काम ठीक से नहीं हुआ. किताब में क्या लिखा है यह तो अभी नहीं मालूम लेकिन वह तो भारती जी के शोध कौशल पर निर्भर है कि उन्होंने कितनी अकादमियता बरत कर, कितना निष्पक्ष होकर अपने पिता के योगदान और कृत्यों का मूल्यांकन किया है !


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