तकनीक की हार से सिद्ध हुई परंपरा की मजबूती

Technology failure in the face of time tested tradition of
knot as device and rope making at Bangalore accident
टायम्स आफ इंडिया के किसी हालिया अंक में छपी खबर कि -'Woman falls to death as rope snaps during drill' अर्थात 'रस्सी अचानक टूटने से उसके सहारे नीचे उतर रही महिला गिर कर मरी' पढ़ते ही मेरा ध्यान अपनी हस्त कलाओं की ओर गया. मुझे विश्वास है कि जिस रस्सी का उपयोग महिला ने किया था वह ज़रूर बाज़ार से लायी गयी होगी ओर उसे मशीन से बुना गया होगा. मशीन से बुनी हुई रस्सी और हाथ से वटी रस्सी में यही फर्क होता है कि हाथ वाली रस्सी एकदम से नहीं टूटती बल्कि घिस कर टूटती है और टूटना शुरू होने पर भी इतना वक़्त ज़रूर देती है कि संभालने/संभलने का मौका मिले. यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो पता चलता है कि हाथ से वटी रस्सी में कदीमी तौर पर जूट के रेशे का उपयोग होता था. जूट तो हुआ अंग्रेज़ी नाम लेकिन हरियाणा में इसे सन और पटसन कहा जाता है. इसी रेशे को प्राप्त करने के लिये हमने अपने बुजुर्गों को इसकी फसल उगाते देखा है. हरियाणा में यह फसल असाढ़ी होती है अर्थात जुलाई /असाढ़ में बोई और अक्टूबर/आश्विन में काट कर किसी पोखर में दबा डी जाती है. दो महिना में इसके रेशे गल जाते हैं. फिर इनकी पूलिओं को पानी से बाहर निकल कर हवा में सूखने के लिये एक दूसरे के सहारे खड़ा कर दिया जाता है ताकि हवा इनके भीतर से निकले और वे जल्दी सूखें. तत्पश्चात, पौधे के पतले तने पर लिपटे हुए रेशे को हाथों से तोड़-तोड़ कर और खींच कर अलग किया जाता है. इस रेशे के पुंजों को लपेट कर गुच्छ बना लिये जाते हैं. इनसे ही पहले स्तर पर पतली रस्सी और फिर इन्हें लम्बाई के बल आपस में एक दूसरे के सामानांतर बल देते हुए लपेटने से रस्सी कि मोटाई को बढ़ाया जाता है जिस प्रक्रिया के चलते रस्सी कि मोटाई और लम्बाई तय होती है. हाथ से बल देने की प्रक्रिया में प्राकृतिक रेशे से तय्यार रस्सा भी बहुत मजबूत होता है. लेकिन यह मजबूती मशीन से वाटे गये रस्सी में कदापि नहीं आ सकती. इसलिये जहाँ जान का जोखिम हो या जान बचाने का कोई उपक्रम या अभ्यास किया जाना हो वहां पर हाथ से वाटे हुए रस्सों का प्रयोग करना उचित होता है. मशीनीकरण के बावलेपन में हमने न केवल एक परम्परा को खो दिया है बल्कि जानलेवा मूर्खताओं को भी न्योता दे दिया है.

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