Fear of GM Crops is genuine- Takes time to resolve


आनुवंशकीय रूप से परवर्तित की गयी फसलों और इनके बीजों से तैयार खाद्य पदार्थों के बारे में एक अंतहीन बहस पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से भारत के विभिन्न हलकों -प्रेस, पत्रिकाओं, एन.जी.ओज. फोरम और सरकार में जारी है. अब यह हमारे घरों कि चार दीवारी और बैठकों में भी पहुँच गयी है -भला हो टी.वी वालों का. कहीं इस नयी तकनीक के विरुद्ध कथन जारी किये जाते हैं और कहीं पक्ष में लेकिन समझौता कहीं नहीं होता. जनता बेचारी परेशान है कि किसकी सुनें और किसकी नहीं. उधर बायो-तकनोलोजी कम्पनियां अपना काम जस का तस कर रही हैं -कहीं लालच देकर, कहीं पैसा बिखराकर या रिश्वत देकर, कहीं रेगयूलेट्री संस्थानों के अधिकारियों और कर्मचारियों को भ्रष्ट करके तो कहीं दादागिरी से तो दूसरी और आमजन की उदासीनता या फिर अल्पज्ञान कि वजह से. एन.जी.ओज दिल्ली या दूसरे महानगरों में एक-आध मीटिंग करके और प्रेस में मुद्दे को उछालकर ही खुश हो जाती हैं की चलिये काम बन गया. सरकार और कम्पनिओं पर दबाव बना है, कुछ डर भी पैदा होगा. लेकिन होता कुछ नहीं. हो वही रहा है जो कम्पनियां चाहती हैं. इनके प्रति सरकार की गंभीरता और वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता कभी-कभी संदेह के दायरे में आती रही है. सचाई तो यह कि पहले आनुवंशिकी परिवर्तन कुदरत करती थी, जिसमें देर से काम होता था. अब यह काम मनुष्य ने सीख लिया है, हुनरमंद हो गया है इसलिये तेज़ी से कर सकता है. इसमें बड़ी कमाई है लेकिन क्या कोई सुरक्षित और बिना बेईमानी का रास्ता बचा हुआ है. यदि कम्पनियां और सरकारें लोगों का वास्तव में ही भला चाहते हैं तो फिर इतना पुश क्यों ? जाहिर है लालच के कारण. इस से भी बड़ा मुद्दा है सरवाईवल का. वास्तव में इसके बारे में हमारी डर 'शायद' नाजायज़ हैं. वैज्ञानिक, जरूरतों के हिसाब से भी और नया खोजने की वजह से कुछ काम करते रहते हैं. शोध और खोज के लिये व्यक्तिगत सम्मान मिलना काम करने के बाद इसका एक विस्तृत पहलू बन जाता है, लेकिन न्याय जीवों अथवा न्याय पौधों की ऐसी प्रजातियों का विकास जिनके सुरक्षित होने के बारे में हमारी जानकारी अभी पूरी अथवा पूरे तौर पर सही नहीं है, उन्हें मुक्त या खुले वातावरण में लाने के लिये जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये. ऐसे जीव या पौडे अपने परिवेश में पूर्व में मौजूद जीवन से किस प्रकार प्रतिक्रिया करेंगे, इस बारे में समुचित जानकारी यदि नहीं जुटाई जाती तो ऐसे परिवर्तनों की शुरुआत हो सकती है जिनका कोई तोड़ हमें मालूम नहीं होगा. जेनेटिकली मोडीफाईड आर्गेनिज्म से बनाई गयी दवाओं के बारे में सकारात्मक तर्क देकर हम फसलों और खाद्य पदार्थों के बारे में निर्णय नहीं ले सकते. दोनों की जैविक प्रक्रिया और प्रोद्योगिकी बिलकुल अलग होती है. दवाओं के बारे में लम्बे अरसे तक क्लिनिकल ट्रायल किये जाते हैं जबकि फसलों के बारे में अक्सर जल्दबाजी होती देखी गयी है. अभी हरियाणा के जिला कैथल के एक गाँव में जी. एम्. मेज़ अर्थात जेनेटिकली मोडीफाईड मक्का के फील्ड ट्रायल किये जा रहे हैं जिसकी इजाज़त प्रादेशिक सरकार और केंद्र सरकार के बायो-टेक्नोलोजी विभाग ने दे दी है. दूसरी और इसी मसले पर हमारी संसद द्वारा नियुक्त सांसदों के एक पैनल ने ठीक इसके उलट अपनी राय दी है जिस पर बिजनेस स्टेंदर्ड अखबार ने अपने २२ तारीख के अंक में उक्त परीक्षण के पक्ष में लिखा है और परीक्षण के विरुद्ध सोच रखने वालों के बारे में कहा गया है की वे विज्ञान-रोधी हैं.

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