शुक्रिया रणबीर जी,

मेरा विरोध सीधा ’आधुनिकता’ के मूल्य से नहीं था, बल्कि आधुनिकता की जो समझौतावादी मिलावटी नकल हमने तैयार की, उससे था. यह सामन्ती व्यवस्था का विरोध करने की जगह उससे गठबंधन के आधार पर विकसित हुई. ’पान सिंह तोमर’ में मैं इसके कई चिह्न देख पाता हूँ. आपने इतनी तल्लीनता से आलोचना को पढ़ा, उसका शुक्रिया. इन प्रतिक्रियाओं से मेरे लेखन और विचारों को बल मिलता है.

...मिहिर.
 
प्रिय मिहिर,
प्रतुत्तर के लिये शुक्रिया. हो सकता है मेरे कथन में त्रुटी रही हो लेकिन आपका विश्लेषण एकदम सटीक था. सिनेमा की विधा के जरिये अपने समाज के जिन छिपे हुए मनान्दोलनों को अक्सर हम नज़रंदाज़ करके चलते हैं वे ही पान सिंह तोमर जैसे सच्चे आदमिओं में शोलों के रूप में विकसित होकर प्रज्वलित होते हैं लेकिन इसमें विनाश तो बहुत अपनों का ही होता है. राज्य की मशीनरी तो केवल उस परिणति के मात्र एक जरिये के रूप में हमारे सामने आती है. वास्तव में पुलिस और प्रशासन की उत्पत्ति जिस कार्य के लिये हुई उसमें पान सिंह तोमर जैसों को एलिमिनेट करना शामिल नहीं होना चाहिये था. किसी ने पान सिंह जैसों के दर्द को संशोधित करने का प्रयास नहीं किया. नहीं तो उसके बागी बनने की कोई वजह नहीं होती.

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