The
Haryana State administration seems to have set wrong priorities in agricultural
sector so far as sowing of crops is concerned necessitating the officials to
ask for a hefty monetary package of `900
cr from the Central Government. The news items appeared in a section of the
press speaks of the melancholic environment in Haryana. With this huge sum of
money it intends to meet the expenditure incurred on purchasing expensive
electricity from NTPC and other companies in the private sector on the grounds
that most of the power is needed to save the basmati rice crop. It is
a familiar fact that the electricity to farming sector in Haryana is already
heavily subsidized thus putting additional burden on the urban people of the
state, which have hitherto honestly paid electricity bills and taxes. Helping
farmers by way of cheap and uninterrupted electric power supply for running of
pump sets and tube-wells, most of them submersibles, in tackling the ensuing
drought following scanty rainfall during this monsoon will not only put strain
on the ground water aquifers but also prove hazardous from environmental and
economic points of view.
The
native people of Haryana do not consume Basmati or other varieties of rice as
their principle diet but grow it as commercial crop for cash. The agencies of
the State Government and the traders procure the huge quantities from Mandis at
low prices, every year. The rice is processed at shellers that dot the skyline of
several northern districts of Haryana, particularly Yamunanagar, Kurukshetra
and Karnal. The traders/exporters neatly pack the rice, print a brand name on
the envelope and sell it in India and foreign marts earning huge profit in
which the share of the farmers is negligible.
Studies
done done by economists as well as environmental and nutrition scientists about
rice growing farmers in Haryana have only presented gloomy pictures, as he is
not even able to extract the labor charges for self maintain its traditional
diet that used to be rich in protein and minerals. Ninety five per cent of the
earnings go into paying for the costly fertilizers- despite the fact that the
item is subsidized, towards footing the bill for diesel or electric power required
to innundate the rice fields, taking the produce to one of the nearest Mandis,
paying handling charges in the Mandi or fees to traders for loading and
unloading etc. In connivance with the officials, the subsidy on fertilizers is
habitually cornered by the retailers and never passed on to the farmer. The
farmer is never able to fetch a good price for the produce.
The
supply of electricity or cheap diesel to the farmer for growing rice has
depleted the ground water aquifers to dangerous level in the State standing no
change for replenishment in near future. Its environmental cost is huge. As vast
areas covering rice fields in Haryana remain inundated for over two and a half
months, its measured impact on the rainfall is known to be devastating. The
evaporated water remains hung during the day and raise the level of humidity in
the atmosphere causing great discomfort to both the people as well as animals.
In order to avoid the oppressive heat caused due to sultry weather the people
opt for more cooling devices, preferably air conditioners in homes and work
place causing further demand on electric power and a drain on their family or
commercial income.
The
chain of reasons that may be responsible for the current phenomena of drought
can be connected directly to the growing rice in mostly the semi-arid regions
of Haryana. It is high time that the State governments of both the Punjab and
Haryana should listen carefully to the agricultural-environment scientists,
ICAR and ICRISAT and rigidly enforce a reversion to the old and time-tested,
more beneficial crops of millets –Jawar, Bajra and lintels for the Kharif
season.
It may take at least 25 years before the nature
recovers the qualities of the ruined land that has faced the tragedy of growing
rice on it. Studies conducted by the Hyderabad based National Institute of
Nutrition have established that coarse grains form more nutritious and
appropriate part of the diets of Indians than substituting it for shelled or
Basmati rice. It looks as if the State government officials were oblivious to
the better options and zealously pursued the agenda that seemed to favor more either
the rich or was politically correct. In fact, the Central Government should promptly
refuse the drought-fighting packages received from the States unless they assure
of resuming farming practices fit for the rain-fed arid or semi-arid
agricultural zones within next three years.
मानसून की बरसात कम होने अथवा अत्यल्प होने या बिल्कुल ही न होने की सूरत में अब हरयाणा, पंजाब और कर्णाटक राज्यों ने भारी मात्रा में केन्द्र सरकार से रुपयों की सहायता मांगी है. गोया मानसून की न सही रुपयों की बरसात तो हो ताकि इसमें से आधे रुपये राजनेताओं की जेबें भर सकें. इस समय सूखे से निपटने के लिये हमें पुराने तालाबों को पुनर्जीवित करने की, सूखे को झेल सकने की क्षमता वाली फसलों और बीजों की तथा समय पर सूखाग्रस्त क्षेत्रों में अनाज और पशुचारा पहुँचाने की जरूरतों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये. पहले के जमाने में हर खेत में किसान एक डाबडा, पोखर, ताल-तलय्या बना कर रखता था ताकि पानी की कमी के दौर में वह कम-से-कम पशुओं के लिये चारा तो उगा सके और कोशिश हो तो कुछ ऐसी फसलें भी जो थोड़े पानी में इतनी उपज दे सकें कि जान बच जाये. अकाल की स्थति में खेती में सम्रद्ध प्रान्तों से खाद्यान्न और चारे की उपलब्धता सुनिश्चित की योजना हमारी पास तैयार होनी चाहिये. लेकिन हमारे राजनेता या तो इस देश के नहीं हैं, या वो अपने देश की पारम्परिक जानकारी का इस्तेमाल करने की अपेक्षा कुछ और तरीकों से देश की जनता को बेवक़ूफ़ बनाने पर तुले हैं या फिर हम अपने देशज़ ज्ञान के नाम पर सब कुछ गंवां बैठे हैं. कौन किसको मूर्ख बनाने की फिराक में है यह तो समय बता ही रहा है लेकिन सूखे के नाम पर टैक्स के रूप में जनता की गाढ़ी कमाई की जिस तरीके से बंदरबांट करने की सोच इन दिनों योजना आयोग की बैठकों से मालूम होती है वो किसी भी सूरत में इस देश के लोगों की तो हो ही नहीं सकती. सूखा कोई इस देश में पहली बार थोड़ा ही पड़ा है कि हाहाकार मचा दिया जाये और क्या लोगों का अपनी शक्तियों पर से भी विश्वास उठ गया है ? इस देश के पारंपरिक ज्ञान की ऐसी दुर्गति और उपेक्षा तो अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं हुयी होगी जैसी हमारी सरकारें अब करने पर आमदा हैं. आखिर हमारे कृषि वैज्ञानिक और दर्ज़नों कृषि विश्वविद्यालय क्या कर रहें हैं. हैदराबाद में स्थित इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंसटीच्यूट फॉर सेमी ऐरिड ट्रोपिक्स के साथ मिलकर कुछ क्यों नहीं किया जा सकता ?
एक अन्य बात यह है कि यदि सूखा-ग्रस्त राज्यों की ओर से धन की मांग इसी तरह बनी रही और सितम्बर मास भी बीत गया तो लगता है १२-वीं पंचवर्षीय योजना तो फिस्स हो जायेगी. सभी जानते हैं कि कृषि इस देश की जान है जिसके सहारे पूरे देशवासिओं का जीवन चलता है. उसको नष्ट होने देने से बचाने के लिये जेनेटिकली मोडीफायिड फसलों की नहीं बल्कि पोषक तत्वों से भरपूर, हमारी जलवायु के अनुकूल बढ़ने और पलने की क्षमता रखने वाली तथा कम पानी की मांग वाली फसलें उगाने की जरूरत है. लेकिन मुख्या नुक्ता तो यह है की इसमें धन नहीं बल्कि ईमानदारी और बेहद परिश्रम की जरूरत होती है.
मानसून की बरसात कम होने अथवा अत्यल्प होने या बिल्कुल ही न होने की सूरत में अब हरयाणा, पंजाब और कर्णाटक राज्यों ने भारी मात्रा में केन्द्र सरकार से रुपयों की सहायता मांगी है. गोया मानसून की न सही रुपयों की बरसात तो हो ताकि इसमें से आधे रुपये राजनेताओं की जेबें भर सकें. इस समय सूखे से निपटने के लिये हमें पुराने तालाबों को पुनर्जीवित करने की, सूखे को झेल सकने की क्षमता वाली फसलों और बीजों की तथा समय पर सूखाग्रस्त क्षेत्रों में अनाज और पशुचारा पहुँचाने की जरूरतों पर ज्यादा ध्यान देना चाहिये. पहले के जमाने में हर खेत में किसान एक डाबडा, पोखर, ताल-तलय्या बना कर रखता था ताकि पानी की कमी के दौर में वह कम-से-कम पशुओं के लिये चारा तो उगा सके और कोशिश हो तो कुछ ऐसी फसलें भी जो थोड़े पानी में इतनी उपज दे सकें कि जान बच जाये. अकाल की स्थति में खेती में सम्रद्ध प्रान्तों से खाद्यान्न और चारे की उपलब्धता सुनिश्चित की योजना हमारी पास तैयार होनी चाहिये. लेकिन हमारे राजनेता या तो इस देश के नहीं हैं, या वो अपने देश की पारम्परिक जानकारी का इस्तेमाल करने की अपेक्षा कुछ और तरीकों से देश की जनता को बेवक़ूफ़ बनाने पर तुले हैं या फिर हम अपने देशज़ ज्ञान के नाम पर सब कुछ गंवां बैठे हैं. कौन किसको मूर्ख बनाने की फिराक में है यह तो समय बता ही रहा है लेकिन सूखे के नाम पर टैक्स के रूप में जनता की गाढ़ी कमाई की जिस तरीके से बंदरबांट करने की सोच इन दिनों योजना आयोग की बैठकों से मालूम होती है वो किसी भी सूरत में इस देश के लोगों की तो हो ही नहीं सकती. सूखा कोई इस देश में पहली बार थोड़ा ही पड़ा है कि हाहाकार मचा दिया जाये और क्या लोगों का अपनी शक्तियों पर से भी विश्वास उठ गया है ? इस देश के पारंपरिक ज्ञान की ऐसी दुर्गति और उपेक्षा तो अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं हुयी होगी जैसी हमारी सरकारें अब करने पर आमदा हैं. आखिर हमारे कृषि वैज्ञानिक और दर्ज़नों कृषि विश्वविद्यालय क्या कर रहें हैं. हैदराबाद में स्थित इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंसटीच्यूट फॉर सेमी ऐरिड ट्रोपिक्स के साथ मिलकर कुछ क्यों नहीं किया जा सकता ?
एक अन्य बात यह है कि यदि सूखा-ग्रस्त राज्यों की ओर से धन की मांग इसी तरह बनी रही और सितम्बर मास भी बीत गया तो लगता है १२-वीं पंचवर्षीय योजना तो फिस्स हो जायेगी. सभी जानते हैं कि कृषि इस देश की जान है जिसके सहारे पूरे देशवासिओं का जीवन चलता है. उसको नष्ट होने देने से बचाने के लिये जेनेटिकली मोडीफायिड फसलों की नहीं बल्कि पोषक तत्वों से भरपूर, हमारी जलवायु के अनुकूल बढ़ने और पलने की क्षमता रखने वाली तथा कम पानी की मांग वाली फसलें उगाने की जरूरत है. लेकिन मुख्या नुक्ता तो यह है की इसमें धन नहीं बल्कि ईमानदारी और बेहद परिश्रम की जरूरत होती है.
Comments
Post a Comment