Indian Journal of Medical Research - Towards a centenary






ऐसा बहुत कम हुआ है की दुनिया में किसी शोध प्रकाशन पत्रिका ने अपने जीवन के १०० साल पूरे किये हों. इस मामले में इंग्लैंड से छपने वाली विख्यात विज्ञान पत्रिका नेचर का नाम लिया जा सकता है जिसे छपते हुए १५० बरस से ज्यादा हो चुके हैं. भारत में ऐसा उदाहरण संभवतः एक ही है: इंडियन जर्नल ऑव मेडिकल रिसर्च जिसे इंडियन काउन्सिल ऑव मेडिकल रिसर्च प्रकाशित करती है. यह सन १९११ की बात है जब अंग्रेजों ने इंडियन रिसर्च फंड एसोशिएसन की स्थापना करके भारत में आधुनिक आयुर्विज्ञान अनुसन्धान की नींव डाली थी. उन दिनों फौज के सामने ट्रॉपिकल कंट्रीज में व्याप्त संक्रामक रोगों से बचने अथवा उनका निदान एवं उपचार करने की जरूरत थी ताकि फौजी लोग हर समय और आकस्मिक जरूरत के समय भी उपलब्ध रह सकें. इसके अलावा स्थानीय खाद्य पदार्थों का उपयोग करके फौज़िओं के लिये पोषक आहार जुटाने की भी जरूरत होती थी. इसलिये अंग्रेजों की फौज के साथ जो डाक्टर लोग थे उन्होंनें शोध की जिम्मेवारी भी उठाई. दो साल के बाद यह महसूस किया गया कि इस शोध से जिस नये ज्ञान का सृजन हो रहा है उसे दूसरे लोगों से साझा करने के लिये एक पत्रिका का प्रकाशन किया जाना जरूरी होगा. इसलिये सन १९१३ में भारत में पहली बार आयुर्विज्ञान शोध पत्रिका के प्रकाशन के बारे मेंसहमति बनी. इसके लिये नाम सोचा गया इंडियन जर्नल ऑव मेडिकल रिसर्च. तब से लेकर आज तक इस पत्रिका का नियमित प्रकाशन किया जा सकना संभव हुआ है जोकि अपने आप में ही एक उपलब्धि मानी जा सकती है. सन १९४९ में देश की नयी जरूरतों के मुताबिक इंडियन रिसर्च फंड ऐसोसिअशन का नाम बदल कर इंडियन काउन्सिल ऑव मेडिकल रिसर्च अर्थात भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् किया गया. इसके कार्यक्षेत्र में विस्तार हुआ, फंड्स की मात्रा में इज़ाफा किया गया और देश के सामने आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में जो सबसे ज्वलंत समस्याएँ थीं उनके हल ढूँढने के लिये अनुसन्धान परियोजनाओं की शुरुआत की गयी. नित नये क्षेत्रों में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् के वैज्ञानिक सलाहकार बोर्ड की सिफारिशें सामने आ रही थीं कि इनमें काम करने की जरूरत है. पहले के दिनों में तो जर्नल में भारतीय डाक्टरों और जैव आयुर्विज्ञानियों द्वारा किये गये शोध का ही इसमें प्रकाशन संभव था लेकिन संचार क्रांति के आधुनिक समय में जब जर्नल ऑनलाइन हो चुका है और दुनिया के हर कोने के अनुसंधान कर्मी इसकी उपस्थिति और प्रकाशन की नियमित स्थिति को जान गये हैं तो गैर-भारतीय वैज्ञानिकों के लेख और टिप्पणियां भी इसके संपादक को मिलने लगीं. अब इन्हें भी छापा जाता है. इससे जर्नल के प्रदर्शन में तरक्की हुई. इस समय जर्नल को छपते हुए पूरे ९९ साल बीत चुके हैं. सौंवें की शुरुआत हो गई है. जर्नल को हमने एक जीवित हस्ती मान लिया है. जब किसी भी हस्ती का सौंवाँ साल लगता है तो परंपरा अनुसार उसकी जन्मशती मनाई जाती है. सो, जर्नल की शती मनाने का मन हुआ तो परिषद् ने ऐसा निर्णय भी ले लिया. जन्मशती पर कोई केक कटे अथवा हवन हो, ऐसी तो कोई बात शायद न हो लेकिन बौद्धिक अनुष्ठानों में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जायगी. सो, ऐसे फैसले लिये गये जो वैज्ञानिकों और शोध संचारकों के अलावा मीडिया को भी पसंद आयें और वे सार्थक तरीके से उनका उपयोग भी कर पायें. इनमें से एक तो यह कि जर्नल का काया परिवर्तन किया जाये -कवर बदल कर और अन्दर दी जाने वाली सामग्री में कुछ नए विभाग और विषय देकर. ऐसा नहीं है यह पहली बार किया गया है बल्कि भूतकाल में कई बार ऐसा हुआ जब जरूरतें बदली, संपादक बदले, तकनीक बदली और इसका प्रबंधन करने वालों की सोच बदली. ग्राफिक्स कला के इस्तेमाल से इस प्रकाशन का स्वरुप और मुखौटा कई बार बदला गया. इसकी कुछ छवियाँ यहाँ प्रस्तुत भी हैं.शोध जर्नल व्यवसायिक और लोकप्रिय दोनों ही हो सकते हैं. लेकिन सफलता तभी हाथ लगती है जब इसे अकादमिक स्तर पर सराहा जाये और इसकी मांग लगातार बनी रहे. आयुर्विज्ञान अनुसंधान मानवजाति द्वारा किया जाने वाला एक सतत प्रयास है और इस क्षेत्र में गतिविधि में नियमितता बनी रही है जो कि भविष्य में भी बनी रहेगी. इसलिये साख को कायम रखने के लिये संपादक मंडल के सामने नियमितता और गुणवत्ता बनाये रखना वास्तव में ही चुनौतियाँ रही हैं. संयोग से इंडियन जर्नल ऑव मेडिकल रिसर्च के संपादकों ने ऐसी सभी चुनौतियों का सामना किया और अगले साल सौंवें वर्ष में जब यह प्रवेश करेगा तो हाज़िर संपादकों- वर्तमान और भूतपूर्व दोनों, के लिये यह गर्वपूर्ण अवसर होगा . पिछले साल, सन २०११ में, जब परिषद् ने अपनी सौंवीं सालगिरह मनाई थी तभी आयोजित की गयी गतिविधिओं में जर्नल के इतिहास पर प्रकाश डालने के लिये परिषद् के वैज्ञानिक डा. रजनीकांत ने इस बारे शोधपरक एक लेख लोकप्रिय शैली में लिखा था जिसे परिषद् द्वारा नियमित और मासिक अवधि से प्रकाशित की जाने वाली पत्रिका - आई.सी.एम्.आर बुलेटिन में जुलाई-अगस्त २०१० अंक, में प्रकाशित किया गया था. यह अंक फुल टेक्स्ट पी.डी.एफ़ में परिषद् की वेबसाइट से डाउनलोड किया जा सकता है. जर्नल ने कई बार अपना चोला बदला, रंग बदले और प्रकाशित होने वाली सामग्री में गुणवत्ता बनाये रखने के लिये अनेक तजवीजें सोचीं. संपादकों की कार्यक्षमता और इसके सलाहकार मंडल के बौद्धिक स्तर पर ही यह निर्भर करता है किकोई नियतकालीन प्रकाशन अपने पाठकों के बीच कितना लोकप्रिय हो सकता है -खासतौर पर ऐसे समय में जब प्रकाशन की लागत बढ़ती रहे, मानक और दूसरे सम-विषयी जर्नलों से प्रतियोगिता जैसी स्थिति भी बनी रहे और संपादक-सञ्चालन मंडल में नये लोग आयें. ऐसा हुआ, लेकिन पहले वालों ने अपने कनिष्ठ सहयोगियों को भरपूर सक्षम बना कर ही छुट्टी की. जर्नल में कालांतर से ऐसे अनेक शोध लेख प्रकाशित हुये जिन्हें आज 'क्लास्सिक' कहा जाने लगा है. कुछ लेख इतने महत्व के हुए कि उन्हें एक ब्रेक-थ्रू माना गया और उन्हें उद्धरण-गौरव अर्थात 'साईटेशन क्लास्सिक' का दर्ज़ा हासिल हुआ. ऐसे ही कुछ लेखों ने भारत में राष्ट्रीय स्तर पर सेहत की पोलीसिओं में परिवर्तन के झोंके पैदा किये तथा निदान एवं उपचार के मायने ही बदल दिये. ऐसे १३ लेखों की पहचान की गयी है जिन्हें क्रमिक तौर पर जर्नल के आगामी अंकों में पुनर्प्रकाशित किया जायेगा. जर्नल के सभी अंकों में से गुजरना आज बौद्धिक आनंद पैदा करने वाला एक शानदार उपक्रम हो सकता है, बशर्ते कोई समय लगा कर इस आनंद को अपने अन्दर जगाना चाहे ! जर्नल के नियमित प्रकाशित अंकों के अलावा विभिन्न अवसरों पर विषय-विशेष पर आधारित अंकों का भी प्रकाश किया है -जैसे की एड्स, टी.बी., गर्भाशय ग्रीवा कैंसर, मधुमेह, पोषण और हड्डी-घनत्व एवं धातु-विषाक्तता आदि. इसके अलावा भोपाल गैस हादसे में पीड़ित लोगों की बीमारिओं पर शोध सम्बन्धी अंक, राष्ट्रीय पोषण संस्थान की स्वर्ण-जयंती के अवसर पर संस्थान की शोध उपलब्धियों की चर्चा बारे एक अंक और मलेरिया तथा पोषण पर भी विशेषांक प्रकाशित किये गये थे. ये सभी अंक संग्रहणीय हैं.जर्नल का सौवां साल पूरा होने पर परिषद् और संपादक मंडल को बधाईयाँ.

Comments