Pot boiling over criticism and review about folklorists -Haryana





हरियाणा में लोक साहित्य के कुछ नये ठेकेदार जब-तब पैदा होते रहते हैं. इन्हें न तो हरियानी भाषा के बारे में कुछ पता है और न ही 'लोक' और 'साहित्य' के बारे में. मेरा मत है कि हरियाणा में लोकसाहित्य नाम की कोई चीज़ नहीं है और न कभी रही. जो रहा है वह लोक संगीत, लोक गायन और लोक नाट्य कहा जाता है. इसका ही 'साहित्य' में जबरन रूपांतरण कर लोक साहित्य नाम दिया जा रहा है. यहाँ के थोड़े पढ़े-लिखे लोगों को (में तो पी.एचडी. किये हुए लोगों को भी ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं मानता क्योंकि ऐसा करने के बाद वे पढ़ना बंद कर देते हैं और सोचते हैं कि इससे आगे पढ़ने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि डाक्टरी की फीत जो लग गयी है! कभी-कभी मुझे भी चौधरी हरद्वारी लाल के कथन से कि 'हरियाणा में डेढ़ ही पढ़ा-लिखा आदमी है', सहमत होना पड़ता है. एक-आध बार अपनी शेखी मारने और ज्ञान बघारने का इन्हें बुखार भी चढ़ता है. फिर वे फेस बुक, और न जाने किस-किस फोरम, पर अपने अल्पज्ञान का ढिंढोरा पीटते फिरते हैं. हाल में ऐसा ही हुआ जिसके कुछ नमूने यहाँ दिये गये हैं. भला हो आचार्य राजेन्द्र गौतम का जिन्होंनें ऐसे लोगों को दुरुस्त करने के लिये कुछ टिप्पणियाँ यहाँ दी हैं. कुछ नज़रिया मेरा भी है.

हरियाणा में लोक साहित्य के क्षेत्र में अभी किसी पितामह का उदय नहीं हुआ है. इसीलिये जिसको जैसा भी सूझता है वैसा लिख मारता है. मैनें आचार्य गौतम से आग्रह किया है कि वे इस बारे में एक स्टेटस पेपर तैयार करें ताकि ऐसे लोगों की आंखें खुलें और दिमाग तरोताज़ा हो जाये जिन्हें अपनी जानकारी को लेकर बड़े-बड़े दावे करने के अलावा और कुछ नहीं आता. ये लोग हिंदी के माध्यम से थोड़ा जान गये हैं तो कुछ संवाद करने/लिखने के बाद और अपनी जानकारी पर दूसरों का ठप्पा लगवाने के लिये फेस बुक जैसे प्लेटफार्म की तरफ दौड़ने लगते हैं. इन्हीं लोगों की वजह से साहित्य के क्षेत्र में हरियाणा की कोई पहचान अभी तक राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बन पाई है. पता नहीं ऐसे लोगों को कॉलेज और विश्वविद्यालय किस तरह मास्टर लगा लेते हैं. क्या तो ये लोग साहित्य का, क्या छात्रों का और क्या प्रदेश का भला करेंगे? हरियाणा में साहित्यिक चोरी जिसे अंग्रेज़ी में प्लेजियारिज्म कहते हैं और बौद्धिक बेईमानी  खूब होती है. सब मिल-जुल कर करते हैं. ऊपर बड़े बाबू लोगों को इस बारे में शून्य जानकारी भी नहीं होती. साहित्य अकादमी के करता-धर्ता और बड़े बाबू लोग आपस में सलाह करके, तय करके नेताओं को भी भुलावे में रखकर इनामात वगैरह हासिल करते रहे हैं. कोई पुलिस में है, कोई आइ.ए.एस है या उसकी बीबी है सब अपने को साहित्यकार मानते हैं. छुटभय्ये इनसे जानकारी पैदा करते के बहाने ढूँढते हैं, मुलाकात होने पर उनके लिखे कूड़ा 'साहित्य' की प्रशंसा करते हैं और निचली किस्म का छोटा सा ईनाम भी पाने में कामयाब हो जाते हैं. साहित्य अकादमी द्वारा ईनाम पाई हुयी कृतियों अथवा पुरस्कृत लोगों की कृतियों की मार्केटिंग का डाटा देखने के अलावा उनकी लोकप्रियता की 'क्वाँटीफिकेशन' की जाये तो उन्हें शर्म आयेगी जिन्होंनें पुरस्कार बांटें हैं और जिन्होंनें लिये हैं. असल में हरियाणा साहित्य अकादमी से वास्ता रखने में गिरोहबंदी और गोलबंदी की तकनीकें ज्यादा कारगरता से काम करती हैं और कृतित्व  की गुणवत्ता कम. यदि इन कृतियों का अंतर राष्ट्रीय मानकों के अनुसार मूल्यांकन करवाया जाये तो अधिकतर ऐसी हैं जिन्हें पढ़ने की जहमत भी कोई शायद ही उठाना चाहेगा. ऐसे में इन कृतियों के बारे में भारतीय भाषाओँ के अखबारों में छपी हुयी परिचयात्मक टिप्पणियाँ कोई मायनें नहीं रखती:-


Dheeresh Saini किताब पढ़ने की इच्छा है। समीक्षा तो बेहद भक्तिभाव से लिखी गई है। अगर लखमीचंद को कालिदास या शेक्सपियर कहा जाता है तो ख़ुदा खैर करे। ओमप्रकाश ग्रेवाल कहते थे देश जैसा हरियाणा, वैसा उसका शेक्सपियर।

Desh Nirmohi धीरेश भाई समीक्षा भक्ति भाव से लिखी गयी है इस का मतलब समीक्षक की नजर में किताब महत्वपूर्ण है २२ मार्च को रोहतक में लोकार्पण के समय भी यह साफ नजर आ रहा था लगभग ७०० प्रतियों का बिक जाना मेरे लिए भी अकाल्पनिक लग रहा था हरियाणा की रागनी लख्मीचंद से बहुत दूर चली गयी है इस प्रतिनिधि संकलन में जनवादी रागनियों का ही संचयन किया गया है ओम प्रकाश ग्रेवाल जी का लेख और सुभाष जी की भूमिका किताब को महत्त्वपूर्ण बनती हैं .

Suresh Jangra लख्मीचंद कब से हरियाणा का शेक्सपीयर बन गया? उच्ची जाति का होने के कारण उस समय के निम्न जाति वालो को भूला दिया गया, उनमे बाजे भगत नाम सबसे उपर आता है, जो लख्मीचंद कई गुणा बेहतर गायक थे। लख्मीचंद के बारे में सही जानकारी जानने के लिए प्रसिद्ध आलोचक आचार्य शीलक द्वारा लिखित पुस्तक ब्रह्म ज्ञानी कौन? पंडित लख्मीचद, बाजे भगत या दादा बस्ती राम, अवश्य पढें।
Desh Nirmohi सुरेशजी आप को किताब अवश्य पढ़नी चाहिए किताब रोहतक में हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति से प्राप्त कर सकते हैं

Subhash Chander बाजे भगत, धनपत सिंह निंदाणा और दयाचन्द मायना हरियाणा के बड़े कवि और कलाकार हुए हैं। हरियाणा सरकार ने कलाकारों के प्रोत्साहन के लिए लखमीचन्द और मेहर सिंह के नाम से पुरस्कार देना शुरु किया है, जो स्वागत येग्य कदम है।बाजे भगत, धनपत सिंह निंदाणा और दयाचन्द मायना ने हरियाणा की कला को आगे बढ़ाया है। इनकी कला को रेखांकित करने के लिए इनके नाम पर भी पुरस्कार दिए जाने चाहिए।
Heritage-Haryana Heritage-Haryana लख्मी चंद पर बहुतों के पूर्वाग्रह हैं. जो भी टिप्पणियां यहाँ प्रेषित हैं वे संतुलित नहीं हैं. टेक्स्ट और कंटेंट के बारे में श्री हरिश्चंद्र बंधु द्वारा लिखित और आचार्य राजेन्द्र गौतम द्वारा सम्पादित पुस्तक 'लख्मीचंद का काव्य वैभव' (१९९७), सरोज प्रकाशन, नन्द नगरी, दिल्ली, भी एक बार पढ़ ली जाये. लख्मीचंद को हरियाणा का शेक्सपीयर कहना तो उचित नहीं लेकिन किसी लोककवि और लोक नाट्यकार को जातिवादी दृष्टि से न देखा जाये तो बेहतर होगा. सभी कवियों और लोक नाट्यकारों की कृतियों का स्तर कभी एक जैसा नहीं होता. इसलिये उनके कार्य और कृतियों की समीक्षा करते है देश-काल और दूसरी सीमाओं का ध्यान अवश्य रखना होता है. अति-प्रशंसा के भावों से विभोर होकर की गयी समीक्षा और 'साहित्यिक' टिपण्णी दुखदायी होती है. लोग यदि तटस्थ होकर कुछ नहीं लिख सकते तो फेस बुक पर आकर गैर-शास्त्रीय टिपण्णी डालने से उन्हें बचना चाहिये. इससे नवोदित समीक्षकों और अनजान पाठकों पर बुरा असर ही पड़ेगा. हरियाणा के लोक कवियों और लोक नाट्यकारों के बारे में जैसी तटस्थ समीक्षायें मैनें आचार्य गौतम की देखी हैं वैसी और कहीं नहीं देख पाया.
  • Rajendra Gautam हरियाणा के लोक साहित्य को रेखांकित करने के प्रयास के रूप मेँ "प्रतिनिधि रागिनियां" के सम्पादक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं. लोक में स्वीकृति पा कर भी शिष्टजनों के द्वारा यह साहित्य उपेक्षित ही है. लगभग 3 महीने पहले रागनी पर अपना एक लेख सुभाष जी ने मुझे भिजवाया था जो बहुत हद तक संतुलित और रागनी की नयी दिशाओं का संकेतक है जबकि यहां ज्यादातर टिप्पणियां एक अनावश्यक क्रोध से उपजी लगती हैं. एक टिप्पणी में मुझे भी इस साहित्य का जानकार मान लिए जाने के कारण यहां टिप्पणी करने मे मुझे संकोच हो रहा था. इतने दिग्गज जानकारों के बीच में मेरी क्या औकात है ! पर कुछ बातें कहना जरूरी लगा. पिछले एक दशक से लखमीचन्द पर कालिख पोतने का एक सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है. भाई सुभाष जी ने लोक-कव्य से जुडने के कारण जिस लखमीचन्द को ब्राह्मणवाद से विद्रोह करने वाला बतलाया था टिप्पणीकारों ने उसकी ख्याति का एकमात्र आधार उसका ब्राह्मण होना मान लिया है. लखमीचन्द के निंदकों ने इतिहास-बोध से कट कर बात की है. बाजे भगत और लखमीचन्द की प्रतिस्पर्धा उनके जीवन-काल में स्वाभाविक थी पर इन महाकवियों के देहावसान के बाद लोक ने तो दोनो को ही उनके काव्य की श्रेष्ठता के आधार पर शिरोधार्य किया है आप हैं कि बिना टैक्स्ट पढे साम्प्रदायिक चश्मा लगा कर देख रहे हैं! एक तरफ तो लखमीचन्द इसलिये अप्रासंगिक हैं क्योंकि उन्होंने यथार्थ से आँख मूँद कर ब्रह्मज्ञान का चित्रण किया, दूसरी ओर उसी ब्रह्मज्ञान के बूते पर आपके लिये बाजे भगत उन से बडे कवि बन जाते हैं! आप बाजे भगत को ब्रह्मज्ञान तक रिड्यूस कर उनका भी अपमान कर रहे हैं. यह बिल्कुल सही है कि आज रागनी का स्वर बदल रहा है. वह जनवादी न सही जनपरक तो हो ही रही है और यह एक ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया है और बहुत बडी आवश्यकता है. श्री मयाना तथा अन्य में जिस सामयिक बोध की उपस्थिति है वह ऐतिहासिक विकास का ही परिणाम है. पता नही टिप्पणीकारों को मालूम है या नहीं 1940 और 1964 के बीच अंग्रेजों के अत्याचार, किसानों का दुख-दर्द, अशिक्षा की विडम्बना पर बहुत अच्छी रागनियाँ श्रीराम शर्मा ने भी लिखी हैं पर मैं तो नाम लेते इस लिये डर रहा हूँ कि फिर एक ब्राह्मण का नाम आ जायेगा. मित्रो यदि 80 वर्ष पूर्व लखमीचन्द जनवाद, स्त्री विमर्ष और दलित विमर्ष की स्थापना कर चुके होते तो सराहनीय तो जरूर होता पर वह सम्भव नहीं था और यह सब न कर पाने के बावजूद क्या उसने ऐसा कुछ नहीं लिखा जो संग्रणीय हो. आप ऐसा मान रहे हैं तो सभी जातियों में विद्यमान उस जनमानस की अवहेलना कर रहे हैं जिस के कंठ में बस कर लखमीचन्द जिन्दा रहे हैं आलोचकों और पोथियों के बूते पर नही!

  • Heritage-Haryana  उम्मीद है आचार्य गौतम की टिप्पणी से हरियाणा के लोक नाट्यकारों की 'आलोचना' के नये दावेदारों की समझ में ज़रूर इज़ाफा होगा. हरियाणा का कोश (हरियाणा एनसाइक्लोपीडिया) जब बन रहा था तो मुझे उसके करीब सभी खण्डों में संपादन सम्बन्धी कुछ योगदान देना पड़ा था. मुझे हरियानी संस्कृति की कुछ समझ तो है ही इसलिये जिन लेखकों की पांडुलिपियाँ मैनें देखी, सम्पादित की अथवा मेरी नज़रों से गुजरीं, उनके स्तर को जानकार में विचलित हुआ था. ज़ाहिर है साहित्य और संस्कृति खंड में जिन लेखकों के योगदान को सम्मिलित किया गया, मेरी व्यक्तिगत राय में उनमें से केवल दो-तीन ही ऐसे हैं जिन्हें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लायक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में लिखना आता है. बाकी सभी कामचलाऊ ही थे. इनमें आचार्य राजेन्द्र गौतम के लेख को में सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ.
    इन दो खण्डों में सम्मिलित लेखों पर संपादकों की अथक मेहनत की दास्तान तो इतिहास में दर्ज हुयी ही नहीं. लोक साहित्य के नाम पर हरियाणा के बौराने वाले लेखकों के रचनाकर्म की तुलना यदि शिकागो विश्विद्यालय में स्नातक स्तर के एक शोध -'ग्राउंड्स फार प्ले' (कु.कैथरीन) से ही की जाये तो यहाँ के विश्विद्यालयों से अवकाशप्राप्त मास्टर पानी भरते नज़र आयें. थर्ड रेट रचनाकर्म को बारम्बार अज्ञानवश मान्यता देकर हरियाणा साहित्य अकादमी के पक्षपाती संचालकों ने अनेक बार इन्हीं में से कुछ चुनींदा लोगों को कभी तो लख्मीचंद और कभी किसी और पुरस्कार से भी नवाज़ने की बेशर्मी की है. ऐसी स्थिति में हरियाणा के मौलिक लोकसाहित्य सृजन कर्मिओं और लोक नाट्यकारों के मौलिक कार्य के बारे में सही समझ पैदा किये बिना ही नवोदित लोग पीते हुये पुराने ढर्रे पर ही टिप्पणियाँ लिखते चले जा रहे हैं. में तो हैरान हूँ कि आचार्य गौतम इतने अरसे से चुप क्यों हैं?




  •  Rajendra Gautam
    मित्रगण, क्षमा करें, ऊपर की टिपण्णी में एक महत्त्वपूर्ण बात छूट गयी है . मेरा मानना है कि हरयाणा के लोक साहित्य को अनेक हस्तियों ने समृद्ध किया है. वे सब पूज्य हैं, महान हैं. मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि किसी को बड़ा बताने के लिए दूसरे को छोटा बताना क्यों जरूरी है? पुरानी, घिसीपिटी बात मानी जाती है या कि बड़ी रेखा को मिटा कर छोटा करना उचित है? मेरे भाईओ, लखमीचंद को मिटा कर आप हरयानी रागिनी बचाना चाहते हैं तो नादानी कर रहे हैं. सब का 'साहित्यिक टेक्स्ट बेस्ड' अनालायसिस कर के दिखाइए तब कोई बात है.
  • Heritage-Haryana: हरियाणा में लोक नाट्यकर्मियों का रचनाकर्म नाट्य की ज़रूरतों के अनुसार नेरेटिव और काव्य का मिला जुला रूप हुआ करता है. वह केवल टेक्स्ट नहीं है. तक़रीबन सभी आलोचकों और समीक्षकों से एक मौलिक गलती यह होती रही है कि वे टेक्स्ट को लेकर बहुत सेंसिटिव बने रहे जबकि केथरीन ने सांग और नौटंकी के 'टेक्स्ट' में झांककर लोकराग से ओतप्रोत नाट्य प्रस्तुतियों की पध्दति, तकनीक और संदेश पर ध्यान दिया. हमारे यहाँ किसी भी बेड़ेबंद सांगी ने स्वयं कोई लेखन कर्म नहीं किया. या तो उनके साथ के दूसरे पढ़े-लिखे लोगों ने उनके लिये 'टेक्स्ट' लिखा था अथवा उनके बाद टेक्स्ट के आधार पर अपनी समीक्षाएँ/आलोचना प्रस्तुत कर दीं जो उन्हें बेड़बन्दों के घरवालों और प्रशंसकों से कापियों और दस्तावजों के रूप में मिली थीं. देहाती पुस्तक भण्डार का इस कर्म में बेहद महत्वपूर्ण योगदान रहा. लेकिन बाद में विख्यात भाषाविद आचार्य जगदेव सिंह का कहना था कि देहाती पुस्तक भण्डार के गुटकों में भाषाई प्रस्तुति बेशक अशुद्ध रही लेकिन इनसे नाट्य-कथा का टेक्स्ट ज़रूर संरक्षित हुआ. खैर, हमारे यहाँ आलोचना और समीक्षा करने वाले लोगों को नाट्य कला की कोई ख़ास समझ नहीं है, इसलिये उन्होंनें केवल टेक्स्ट को लेकर साहित्यिक निबंध लिख डाले. इन्हें समीक्षा या आलोचना कहना भी 'लिटरेरी जार्गोन' में उचित नहीं है. 'टेक्स्ट' की सत्यपरकता और शुद्धि पर भी अनेक बार सवाल उठते रहे हैं. वर्तमान आलोचनाएँ लख्मीचंद और मांगे राम के जाने के बहुत बाद की हैं. इन दोनों और इनसे पहले के लोक नाट्यकारों के समय की प्रस्तुतियों को फिज़िकल तौर पर वर्तमान आलोचकों ने देखा ही नहीं तो नाट्य नाट्यकर्म के बारे में तकनीकी और प्रस्तुतीकरण सम्बन्धी कुछ भी लिखना उनके लिये साहित्यिक नैतिकता नहीं हो सकती थी. इसीलिये गलतियां हुईं. इसलिये जो कुछ लिखा गया या लिखा जा रहा है उसमें 'अंदाज़' और 'कल्पना' का तत्व हावी है. जनाब हबीब तनवीर ने हरियाणा के सांग को लेकर बहुत पहले, संभवतः कुरुक्षेत्र में, एक कार्यशाला लगाई थी जिसमें उन्होंनें सांग-मज़मून के आधार पर डेढ़ घंटे की स्क्रिप्ट तय्यार करवा कर प्रस्तुति करवाई थी. इसे एक तजुर्बे के तौर पर शहरी रंगमंच को ध्यान में रख कर तय्यार करवाया गया था. यह प्रशंसनीय प्रयास था लेकिन उनसे आगे और अब उनके बाद इस प्रयोगधर्मिता को तवज्जो नहीं दी जा रही. कुछ भी हो मुझे शुरू से ही सांग के टेक्स्ट की साहित्यिक समीक्षाएँ और आलोचना कभी नहीं जंची. विद्वान् लोग इस बारे में ठीक से और विचार कर लें ताकि आलोचना और समीक्षा को सही दिशा मिल सके. दूसरा, इस कर्म को साहित्यकों के दायरे से बाहर निकालकर नाट्य-आलोचकों के पास ले जाना होगा अथवा वे स्वयं ही इसे ग्रहण करें तो बेहतर होगा. अफ़सोस है की इस और अभी तक केंद्रीय संगीत और नाटक अकादमी ने ध्यान क्यों नहीं दिया है. हरियाणा को वैसे भी राष्ट्रीय रंगमंच पर कोई नहीं पूछता. वज़ह वही हैं जो उपरोक्त हैं.






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