Indian Media reviews 1962 debacle with China on the northern front (भारत के मीडिया में १९६२ में चीन के साथ हुयी जंग की समीक्षा)
पचास साल पहले हिमालय में बर्फीली और दुर्घर्ष उपत्यकाओं में चीन के साथ एक ऐसा युद्ध हमने लड़ा था जैसा द्वितीय महायुद्ध के समय हिटलर की फौजों ने रूस के बर्फीले मैदानों में या नेपोलियन ने आल्प्स पर्वत-श्रेणियों को लांघ कर अथवा स्पेन की ओर बढ़ते हुये पहाड़ी वादियों को पार करते समय लड़ा था. भारत-चीन के बीच हुई जंग के बाद दोनों देशों में अब तक दो नयी पीढ़ियां आ चुकी हैं. भारत में जो पीढ़ी इस समय जवान है वह इस भयानक जंग और अपमानजनक हार, जिसे विनाश कहना ज्यादा उचित होगा, के बारे में क्या सोचती है ? इसी सोच पर पर निर्भर करती हैं अनेक बातें. जैसे कि, चीन के साथ रिश्तों की नयी कवायद - जिसमें कूटनैतिक स्तर पर व्यापार, पर्यटन और सांस्कृतिक लेन-देन को प्रमुखता से प्रदर्शित किया जा रहा है. लेकिन बहुतों को यह समझने में कठिनाई होगी यह केवल एक छलावा है. आजकल भारतीय संचार माध्यमों में, ख़ासतौर से अंग्रेजी भाषा के अखबारों और टेलीविज़न चैनलों पर, सन १९६२ में चीन के साथ हुयी जंग की पचासवीं बरसी को याद किया जा रहा है. यादगिरी की इन चर्चाओं के बीच चीन से हुआ वह युद्ध एक आत्म-तुष्टिकरण की कवायद ज्यादा लग रहा है और ईमानदार समीक्षा कम. चीन, जो पाठ हमें पचास साल पहले पढ़ा गया क्या भारत के राजनेताओं, कूटनीतिज्ञों और फौजी योजनाकारों ने उसे पढ़ लिया है. चीन युद्ध से सम्बद्ध ऐतिहासिक दस्तावेजों को पढ़ कर तो अब लगता है कि फौज ने तो वह पाठ उसी दिन पढ़ लिया था लेकिन हमारे राजनेताओं को तो उसकी लिपि भी आज तक समझ में नहीं आयी है, ऐसा भारत का आम आदमी समझ चुका है.
चीन के साथ जब जंग हुयी थी तब मैं दस साल की उम्र का था और पंजाब में पाकिस्तान की सीमा से सटे हुये जिला फिरोजपुर की छावनी में अपने पिता के साथ मौजूद था. उनकी तैनाती लद्दाख में चुसूल क्षेत्र में हुयी और वे चले गये. महीना भर बाद, सीज़-फायर होने पर लौट आये थे. सन १९६५ में, केवल तीन साल बाद ही पकिस्तान ने पश्चिमी सीमा पर मोर्चा खोल दिया और भारत को युद्ध के लिये ललकारा. हम वहीं, फिरोजपुर में ही थे. इन तीन सालों में मैं १३ साल का हो गया और बहुत सी बातें समझने लगा था. तोप और टेंक के गोले जब घरों के पास आ-आकर गिरने लगे थे तो हुकुम हुआ कि परिवारों को देश के भीतरी भागों में उनके गांवों और रिश्तेदारों के यहाँ भेज दिया जाये. सो, ताऊजी आकर हमें गाँव ले आये थे. पिताजी आर्मर्ड डिवीज़न की रेजिमेंट में थे. क्या हुआ हमें पता नहीं, लेकिन बाद में समझ आया कि हमारी फौजें बर्की तक पहुंची थीं.
खैर, चीन को लेकर भारत के मीडिया में इन दिनों जो आ रहा है वैसा चीन के मीडिया में नहीं. यह अंतर बहुत कुछ तो दोनों देशों में मीडिया की आजादी और मिजाज़ पर निर्भर करता है. लेकिन हमारे मीडिया में चीन के साथ हुयी उस 'एकमात्र' जंग के दौरान उन दिनों के भारतीय मीडिया, राजनैतिक व्यवहार अर्थात रेस्पोंस, कूटनैतिक परिवेश और पश्चिमी देशों के रवैये पर
जिस प्रकार से निर्भय होकर या खुल कर विस्तार से लिखा जा रहा है और चर्चाएँ हो रहीं हैं उसे भूतकाल की समीक्षा, वर्तमान का विवेचन और भविष्य की व्यूहरचना के तौर पर देखा जा सकता है. कुछ बातें स्पष्ट हैं: (१) उत्तरी सीमाओं पर चीन की तैय्यारी हमारे से बेहतर है (२) समुद्री सीमाओं पर उसकी चुनौती ज्यादा नहीं तो बराबर अवश्य है, ख़ास तौर से उसकी परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बियों की संख्या और इनकी परमाणु अस्त्र ले जाने वाली मिज़ाइल के दागे जाने की क्षमता (३) चीनी सैनिकों की बेहतर बैरकें और भोजन-पानी की व्यवस्था (४) रसद पहुंचाने की बेहतर क्षमता जो ल्हासा तक बिछाई गयी और प्रत्येक मौसम में चालू रखे जाने की द्रुतगामी रेल सेवा और इसके दक्ष सञ्चालन से संभव हुयी है (५) पदाति सैनिकों के लिये बेहतर फील्ड हथियार और उनकी लोकशन बताने वाली तकनीक (अर्थात जी.पी.एस) (६) बेहतर संचार साधन जिनसे कमांड से सैनिक का सम्बन्ध व्यक्तिगत स्तर पर संभव होता है और, अंत में (७) हमारे से कहीं मजबूत अर्थव्यवस्था, अस्त्र-शस्त्र निर्माण में स्वावलंबन, अंतर-राष्ट्रीय मंचों पर अत्यंत मज़बूत कूटनैतिक स्थिति और चीन के लोगों का चरित्र.
मुझे नहीं लगता कि चीन इतना बेवकूफ देश है कि अपने लोगों की मुश्किलें बढ़ाने, मज़बूत अर्थव्यवस्था को दांव पर लगा कर देश को गर्त में ले जाने, तिब्बत को खो देने के खतरे और अमरीका द्वारा खुल कर उसके विरुद्ध भारत के साथ युद्ध में उतर पड़ने की आशंका के चलते, भविष्य में भारत के साथ कोई युद्ध लड़ने अथवा उलझने का प्रयास करेगा. उसका मकसद पूरा हो रहा है तीन बातों से: (१) पकिस्तान को हमेशा ही हमारे साथ ठंडे युद्ध में उलझा कर रखने से (२) तिब्बत में इन्फ्रा-स्ट्रक्चर को बेहद मजबूत करने से और भारत की सीमाओं पर देश-द्रोहियों को लगातार उकसाते रहने और उन्हें घातक अस्त्र-शस्त्र सप्लाई करते रहने से. चीन से मिली चुनौती को चीन के तरीके से निपटने के रास्ते निकालने में बिना युद्ध के भारत की जीत असंभव है. हमें एक नहीं, अनेक मोर्चों पर इन्वेस्ट करना होगा.
चीन अथवा पकिस्तान से निपटने के लिये तकनीक और मनोविज्ञान के रास्तों पर हमें चलने की जरूरत है. पिछले २० वर्षों में चीन ने इंजीनियरिंग के मामले में जो बढ़त हासिल की है वह उसके विकसित बौद्धिक-बल और मज़बूत इरादों का प्रमाण है. जैसे कि, दुर्गम मार्गों से रेलवे लाईन बिछा कर ३५० किलोमीटर प्रति घंटा की गति से रेलगाड़ी चलाना, थ्री-गोर्जेस डैम का निर्माण, पुलों और ऐसी इमारतों का निर्माण जिन्हें देखकर मनुष्य दंग रह जाये, मौलिक विज्ञान के क्षेत्र में शोध-पत्रों की नित बढ़ती संख्या (चाहे गुणवत्ता अभी विश्वस्तर की न हो), स्ट्रैटिजि़क माने गये सैनिक साज़ो-सामान के निर्माण में आत्मनिर्भरता हासिल करना, अपने ही वाहन के द्वारा अन्तरिक्ष में मनुष्य को भेजना, इंटर-कांटिनेंन्टल बैलिस्टिक मिज़ाईलों का निर्माण और इन्हें स्थल और पानी के नीचे से दागने की क्षमता हासिल करना, अद्वितीय कौशल से स्टेट-ऑफ-द-आर्ट तकनीकों से एक पुराने रशियन एयर-क्राफ्ट कर्रिअर युद्ध-पोत का नवीकरण और इसके संचालन और मारक क्षमता में उच्च स्तर की अभिवृद्धि करना आदि बहुत से ऐसे उदाहरण हैं जिनसे चीन का मुकाबला करने में भारत को दांतों पसीना आ सकता है. हम अपने बेशकीमती संसाधनों का इस्तेमाल विदेशों से अस्त्र-शस्त्र खरीदने में ज़ाया करते रहे हैं. अपने वैज्ञानिकों और तकनीकिविदों को अभावग्रस्त रखकर उन्हें काम न करने के लिये रोजाना कोसते रहे हैं, निरुत्साहित करते रहे हैं और कुछ मामलों में बेइज्ज़ती भी करने से बाज़ नहीं आये हैं. इन बातों को देखकर चीन हमारी खिल्ली उड़ाता रहा है. वैसे, यह विस्मयकारी है कि हमारी फौजों के हौसले बढ़ाये
रखने के लिये देश में ज़ज्बात की कमी नहीं है. परन्तु खाली ज़ज्बात से युद्ध नहीं लड़े जाते. हां, भला हो डी.आर.डी ओ के वैज्ञानिकों का जिन्होनें परिश्रम करके सैनिकों को हाई-अल्टीट्यूड वारफेयर के लिये तैयार करने के प्रोटोकोल बनाये, मुश्किल मौसम में महीनों तक ख़राब न होने वाली और खाई जा सकने वाली खाद्य-सामग्री का विकास किया और पल-पल बदलने वाले जानलेवा मौसम में भी जिन्दा रहने और युद्ध लड़ने योग्य बने रहने के वास्ते जीवनदायी सामग्री, वस्त्रों और हट्स का विकास किया.
वर्तमान मीडिया हाईप के चलते महत्वपूर्ण सवाल ये हैं कि (अ) क्या सन १९६२ में मौजूद उन राजनैतिक और कूटनैतिक खामियों को दूर किया जा सका है जिनकी वजह से भारतीय फौज को भारी नुक्सान झेलना पड़ा था और जिस युद्ध में हमारे
सैनिकों के अदम्य साहस की दुनिया ने तारीफ़ की और अपनी गलितयाँ छिपाने के लिये हमने दुत्कारा (आ) क्या राजनेताओं को घरेलू राजनीती में शुचिता और कूटनैतिक स्तर पर सख्ती बरतने का संदेश दिया जा रहा है ? (इ) क्या मनोवैज्ञानिक स्तर पर फौज के पुराने ज़ख्मों को हरा करके उसे अपमान-मिश्रित गुस्सा दिलाया जा रहा है ? (ई) क्या एक ऐसे दबाव का माहौल बनाया जा रहा है जिसमें राजनेताओं को यह चेतावनी दी जा रही है कि सावधान! अपने निजी स्वार्थों में आकर देश को लूटकर धन-सम्पदा बटोरने में लिप्तता वाली दूषित मनोवृति को छोड़, देश के नव-निर्माण की ओर ध्यान दें ताकि अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान और आत्म-निर्भर होकर जिया जा सके. अब यह दीखने लगा है कि हमने कोई सबक नहीं सीखा. हमारी
राजनैतिक प्रणाली अभी तक मनोवैज्ञानिक स्तर पर इतनी कमज़ोर है कि फौज के आश्वासन के
बावजूद चीन की ओर से भयभीत रहती है. क्या मज़ाल कि कोई भारतीय सरकार चीन के बारे
में एक शब्द भी उल्टा बोल जाये!
भारत
का राज-काज हमेशा से गलत प्रकार के लोगों के हाथ में रहा है. जिन लोगों को राज
करना चाहिये वे तो सेवक हैं और जो सेवक होने के काबिल भी नहीं वे राज-कार्य करते
हैं!
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