मालूम नहीं इसे कालियादेह क्यों कहा गया और किसे यह नाम सूझा होगा. लेकिन मेरा अनुमान है कि उज्जैन से ६ किलोमीटर दूर पूर में बलखाती क्षिप्रा नदी में बने हुए इस महल के आसपास के इलाके को कालियादेह के नाम से जाना जाता है. शायद पौराणिक काल से नदी अस्तित्व में है. मैंने इस महल का बड़ा नाम सुना था. पिछले अर्द्ध-कुम्भ से १४ दिन पहले मैं उज्जैन में था तो सोचा महाकालेश्वर से लेकर कालिदेह तक की पदयात्रा की जाए. साथ में मित्र भी थे. अगर ऐसा न करता तो वीर दुर्गा दास राठौर की स्मारक छतरी के दर्शनों से भी वंचित रह जाता.
एक घंटा पैदल चलने के बाद कालियादेह पहुँच गया और तुरत ही एक जायजा लिया की माजरा क्या है? ऊपर से कुछ दिखाई नहीं दिया. कुछ दूर से एक खायी दिखाई दे रही थी जो क्षिप्रा है. नीम के बड़े पेड़ के नीचे कुछ पल विश्राम करके निकट आया तो नजारा देख कर अभिभूत हो गया. लेकिन पानी के तमाम हौद या कुंड और नालियां प्लास्टिक और अन्य प्रकार के कचरे से भरे थे और जलप्रवाह को अवरुद्ध किये हुए थे. जल भी कम ही था. जिस सड़क मार्ग से पैदल आया था वह नदी के पार एक पुल से होकर आगे निकल जाती है. मेहराब वाले इस पुल का निर्माण भी महल के साथ ही हुआ. पुल के रक्षा के लिए कम ऊंचाई की एक दीवार भी बहाव के ऊपर की दिशा में मौजूद है जिसे पानी के प्रवाह की ताकत को नियंत्रित करने के लिया बनाया गया था ताकि वर्षा ऋतु में नदी में पीछे से अधिक पानी आये तो एकदम से महल को पानी से न भर दे. पूरी नदी के तल में १५०x२०० गज का एक चबूतरा है. पानी धीमी गति से विभिन्न चैनल्स में से बहकर कुंड में भरता है और नालियों से होकर नदीतल में नीचे एक प्रपात के रूप में गिरता है. वहाँ से आगे नदी तल फिर से कच्चा है. मानव मस्तिष्क के इस्तेमाल से बनी इस अद्भुत कृति को देखकर कुछ सोचता रहा और कल्पना करता रहा कि ऐसी रचना भारत में और कहाँ हो सकती है?
अकबर और जहांगीर दोनों यहाँ मांडू जाते हुए रुके थे. जहाँगीर तीन दिन रुका था. आने से पहले उसने अपने उस्ताद मीमार (चीफ आर्किटेक्ट) को महल की जांच और मरम्मत के लिए भेजा था. वह यहाँ शायद सन १६१५-१६ में आया था क्योंकि जहाँगीरनामा में उसने कालियादेह का जिक्र किया है और कहा कि इसे नासिरूद्दीन ने बनवाया जो मांडू के शासक गियासुद्दीन का बेटा और सुलतान महमूद खिलजी का पौत्र था. इसका निर्माण सन १४५८ ई. में किया गया.
महाराज भरथरी अथवा भृतृहरि और उसके भ्राता विक्रमादित्य एवं महाकालेश्वर और कुम्भस्थ के कारण उज्जैन जगत विख्यात है. महाकवो कालिदास यहीं हुए. मराठों के उत्थान काल में उज्जैन का इलाका ग्वालियर के सिंधिया के अधीन रहा. सन १९२० में माधव राव सिंधिया ने कालियादेह से संलग्न क्षिप्रा नदी के पूर्वी तट पर एक विश्राम गृह बनवाया था जो अभी उपेक्षित है और जर्ज़र होता जा रहा है.
कालियादेह महल को देखकर यह भ्रम होता है कि नदी में महल है या महल में नदी. कुछ यात्री महल को देखने जरूर आते हैं, लेकिन इसकी हालत देखकर अफ़सोस करके वापिस जाते हैं. न जाने पुरातत्व विभाग, जल विभाग और मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग नदी को साफ़ क्यों नहीं रख पाए
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