Village vignettes: Some art in architecture of dwellings in Karora village located in north central Haryana (करोड़ा गाँव में वास्तु शिल्प के साथ कुछ कला )...
In the year 2002 I set out one fine morning on my two wheeler towards Kaithal and reached Karora village. While loitering in the streets I happened to see this house in brick masonry. It might have been constructed sometime in the second quarter of the last century. It was an abandoned dwelling and a medium size haveli of a later type. There are several typologies in Haryana. The entrance was through a moderately impressive facade and opened into a porch with a curtain wall facing the observer. It opened on left and right for entry into the small courtyard. But one thing couldn't escape notice and that was paintings in tempera created in niches plastered and bordered in lime plaster. The subject and method of depiction was quite interesting. It was neither fine nor done by a novice. The influence of Sikh Kalam was evident through the line work, color scheme and the type of faces.
जिला कैथल पहले वृहत जिला करनाल का हिस्सा हुआ करता. इस क्षेत्र को महाभारत काल से ही नर्दक कहा जाता है अर्थात ऐसा क्षेत्र जिसमें अनेक नदी ताल हो. घग्घर, सरस्वती और दृषद्वती नदियों से सिंचित यह क्षेत्र वनाच्छादित रहा. इस क्षेत्र के गाँव समृद्ध रहे हैं क्योंकि या जमीन उपजाऊ और सिंचित है. पटियाला रियासत के उदय के बाद कैथल का इलाका 'सिख भाईओं' ने अधिग्रहित कर लिया था और वे दक्षिण में करोड़ा तक और उत्तर में कुरुक्षेत्र तक फैल गए थे.
करोड़ा मेरा जाना अचानक हुआ. में इस इलाके के गाँवों की धरोहर को प्रलेखन कार्य कर रहा था. यह गाँव जींद-कैथल मार्ग से पूर्व में कुछ भीतर जाकर स्थित है. आजकल गूगल में जाकर सॅटॅलाइट मैप्स से किसी गाँव की स्पेसियल रीडिंग की जा सकती है. वर्षों इनका अध्ययन करने से अब कुछ दक्षता हासिल हो गयी है. करोड़ा जाकर निराश नहीं होना पड़ा.
इस विशिष्ट हवेली के अलावा एक और मकान में मेरी रुचि की वजहें पहली किश्त में बता दी गयी थीं. इस इलाके की मिटटी (क्ले) चिकनी होने के कारण लखौरी ईंटे अव्वल गुणवत्ता की बनती रही हैं. इस इलाके में रहने वाले मुसलमान राजमिस्त्री बहुत अच्छा काम करने में दक्ष थे. इन्ही के संपर्क में रहने वाले हिन्दू चिनायीगर भी बढ़िया काम किया करते, ख़ास तौर से ईंटों की घड़ायी करके वे सुन्दर डिजाईन तैयार करते थे. इस मकान में भी उन्होंनें द्वार रचना और 'पेन्ह्डी' बनाने में कुछ दक्षता दिखाई. लेकिन मुझे भित्तिचित्रों की शैली ने आकर्षित किया. गाँव में लोगों को इस तरह के कला निर्माण का संरक्षण करने की कतई समझ नहीं हैं. मकान मालिक ने जब इस घर को खाली किया तो उसने इसमें भैंसे बांधनी शुरू कर दी और कुछ कमरों में तूड़ा भर दिया. मैंने अन्दर झाँक कर देखा तो चहूं तरफ गोबर और पशु मूत्र की गंध थी. लेकिन ड्योढ़ी कुछ ठीक थी. इसी में दीवार पर विशेष तौर से अलिंद नुमा रचना बनाकर आठ-दस भित्तिचित्र अंकित किये गए थे. चितेरे को जैसे समझ थी उस हिसाब से उसने काम किया. सिख चित्रकला के प्रभाव से उसने यहाँ जो चित्र बनाए तो एक अलग छाप छोड़ी. मैंने अन्य स्थानों के भित्तिचित्र भी इस और अन्य इलाकों में देखे हैं. तभी इन चित्रों को ध्यान से देखने के बाद फर्क महसूस हुआ. इनमें देह को लम्बी और सुतवां रखने की अपेक्षा मोटा और गोल रखा गया और अंकन के लिए एकल एवं स्वतंत्र विषय चुने गए अर्थात नैरेटिव नहीं हैं. अगर चितेरा चाहता तो एक ही थीम पर आठ-दस पेनल्स में कोई कहानी बता सकता था. वनवास के दौरान श्री राम, लक्ष्मण और सीता का जो चित्र अंकित हुआ उसमें सीता को तीनों में पीछे दिखाया गया है जबकि पारंपरिक तौर से सीता जी हमेशा बीच में रहती है और लक्ष्मण दो कदम पीछे. वनवास गमन से पहले तीनों ने अपने आभूषण उत्तर दिए थे. लेकिन इस चित्र में चितेरे ने तीनों को आभूषण युक्त दिखा दिया है. यह चित्र किष्किन्धा में हनुमान से भेंट का है. एक चित्र संभवतः रानी नाभा रियासत की रानी का है जिसके सम्बन्ध पटियाला राज से दुरुस्त नहीं थे. उसने फौज की कमान खुद संभाली थी इसलिए उसे घोड़े पर सवार अंकित किया है. दूसरे चित्र में संभवतः नाभा रियासत के राजा हीरा सिंह को अंकित किया है. यहाँ वैष्णव और कनफटा साधुओं के साथ काला हिरन का चित्र भी प्रतीक के तौर पर मौजूद है. यहाँ हाथी के सवारी करते संपन्न लोग भी हैं और हुक्का पीने वाला ग्रामीण. यह गाँव मुख्यतः जाटों का हैं.
धूल-धूसरित इन चित्रों को साफ़ करने में मुझे खासी मशक्कत करनी पड़ी थी और मकान मालिक के परिवार के अलावा कुछ और लोग भी मेरी कार्रवाई को देखने के लिए उत्सुकतापूर्ण एकत्रित हो गए थे. लेकिन वे लोग चुपचाप रुचि-पूर्वक देखते रहे. मुझे इस काम में दो घंटे का समय लगा. जितनी सफाई-धुलाई हो सकती थी उतनी की गयी तभी ये चित्र पहचानने लायक दिखे. मुझे नहीं मालूम यह मकान अब मौजूद है या नहीं और अगर होगा तो चित्रों की क्या दशा होगी. लेकिन हरयाणा के भित्तिचित्र कला इतिहास में ये दर्ज करने लायक हैं, यह तो मैं समझ ही गया था
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