2-Health Systems Research

२-कोरोना महामारी ने रिसर्च के लिए पांसा पलटा
-मेडिकल सिस्टम्स रिसर्च पर अंगुली उठाने वालों की बोलती बंद
जिन व्यक्तियों ने कभी रिसर्च नहीं की, खासतौर से हेल्थ सिस्टम्स और मेडिकल या बायो-मेडिकल रिसर्च सिस्टम्स से वाकिफियत नहीं रखते वे कोरोना वायरस से फ़ैली महामारी के इस दौर में मॉस मीडिया के जरिये अपने पाठकों और सुनने वालों को बता रहे हैं कि कोरोना वायरस पर भारत में किस तरह की रिसर्च की जरूरत है और क्यों है? सलाह देने के लिए सोचना एक स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा है, लेकिन औकात से बढ़कर सोचना और मीडिया के जरिये उसे शेयर करना कभी-कभार खिल्ली भी करवाता है.
लोकतंत्र में सब लोग सब क्षेत्रों में एक्सपर्ट्स होते आये हैं. सबसे बड़े एक्सपर्ट्स तो पत्रकारिता में लगे हुए व्यक्ति ही हैं और इस का मुझे बड़ा आश्चर्य होता है. कुछ समय पहले तक मुझे ज्ञात है कि अत्याधिक जटिल तकनीकी और वैज्ञानिक विषयों पर सम्पादकीय लेख तक बाहर से छिपे तौर से तकनीकी और वैज्ञानिक संस्थानों में काम करने वाले एक्सपर्ट्स से लिखवाये जाते थे. लेकिन आजकल जर्नलिस्ट्स खुद ही सब तरह के एक्सपर्ट्स बने हुए हैं. मुझे इसमें एकाध-बारगी ऐसे दृष्टांत मिलते हैं जो हास्यास्पद होने के साथ अफसोसजनक होते हैं.
हेल्थ सिस्टम्स रिसर्च बड़ा व्यापक क्षेत्र है जिसके बारे मैं तीन दिन पहले एक लेख में इंगित कर चुका हूँ, लेकिन बायो-मेडिकल रिसर्च सिस्टम्स और भी गहन आकलन और श्रेष्टता की मांग करता है. एम्पिरीकल मोडल्स तो दोनों में ही काम करते हैं. भारत में मॉडर्न और पारंपरिक दोनों ही -आयुर्विज्ञान शोध और नैदानिक एवं उपचार, पद्धतियाँ काम करती हैं, लेकिन कमोबेश दोनों का विद्वत्त-सलाहकार ढांचा एक जैसा होकर भी कुछ मायने में अलग रहा है. इसीलिए देश में 'इंटीग्रेटिव बायो-मेडिकल रिसर्च' की जरूरत महसूस हुयी. यह सिस्टम अपने अंदाज़ से बढ़िया काम कर रहा है और नयी दृष्टि से पुरानी पद्धतियों का आकलन करके शानदार नतीजे देने वाला है. लेकिन अभी मामला 'स्लो' या मंद गति का है.
मॉडर्न सिस्टम ऑफ़ मेडिकल रिसर्च बहुत फास्ट काम करता है. इसमें बीस-तीस तरह के एक्सपर्ट्स की जरूरत पड़ती है और रिसर्च फील्ड्स को 'एपिडेमियोलॉजी और इन्फेक्शस डिजीजेज़', 'नॉन-कम्युनिकेबल डिजीजेज़', 'रिप्रोडक्टिव हेल्थ एंड न्यूट्रीशन', 'बेसिक मेडिकल साइंसेज' के आलावा 'बायो-स्टेटिस्टिक्स' के फील्ड्स में बांटा गया है. प्रत्येक फील्ड का विस्तार अनंत तक है.
किसी भी रिसर्च आर्गेनाइजेशन में एक व्यक्ति या एक एक्सपर्ट के मार्गदर्शन में एक टीम एक्सक्लूसिव रहकर अपने तौर से काम नहीं करती. इसकी एकाउंटेबिलिटी तय होती है और इसके काम पर नजर रखने के लिए एक रिसर्च सलाहाकार समिति होती है जिसमें एथिक्स के एक्सपर्ट्स भी होते हैं. इसके ऊपर वैज्ञानिक सलाहकार बोर्ड काम करता है. प्रत्येक समिति का अध्यक्ष अपने पद से जुडी गरिमा और अनुभव के चलते सलाहकार बोर्ड का सदस्य होता है. इससे भी ऊपर गवर्निंग बॉडी होती है जिसका अध्यक्ष केंद्र में विभाग का मंत्री होता है. यहाँ से सब रिपोर्ट्स का ब्रीफ प्रधान मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार को सबमिट किया जाता है. प्रत्येक स्तर पर कमेटियां होती हैं. इसमें प्लानिंग कमीशन या अब नीति आयोग की भी महत्ती भूमिका रही है. यह 'पीयर रिव्यु सिस्टम' सब देशों में करीब-करीब एक सामान है. इसमें भारतीयता, अंग्रेजीपन, चीनीपन-जपानीपन या अमरीकीपन जैसी कोई बात नहीं होती.
रिसर्च का ढांचा दो प्रकार से काम करता है: इन-हाउस और एक्स्ट्रा-म्यूरल. पहले स्तर पर हर कार्य को डेडिकेटेड इंस्टिट्यूट के जरिये अंजाम दिया जा है. ये इंस्टिट्यूट मिशन मोड में काम करते हैं जैसे हाल के समय में सभी को पुणे स्थित 'नेशनल इंस्टिट्यूट ऑव वायरोलौजी' के बारे में मालूम हो गया है. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान की जड़ें ११० साल पुरानी हैं. इसके पास विशाल अनुभव और तकनीकी दक्षता है. यह दक्षता अधिकांशतः भारतीय वैज्ञानिकों के अपने बौद्धिक श्रम से आई है हालांकि विदेशों में कुछ लोगों को किसी ख़ास मकसद से दक्षता हासिल करने के लिए आदान-प्रदान के आधार पर भेजा या बुलाया जाता है. भारत की जैव-विविधता भारत के वैज्ञानिकों के लिए अनेक प्रकार से विशिष्ट रही है. इसका असर हमारे आयुर्विज्ञान अनुसंधान पर हमेशा से परिलक्षित हुआ है और प्रभावी रहा है.
इस तरह पूरे परिदृश्य को समझे बिना जर्नलिस्टिक तरीके से विचलित करने वाले प्रश्न उठाना और अपनी हेकड़ी विज्ञानियों पर जमा कर रखना किसी भी मायने में अशोभनीय कृत्य है. पिछले दिनों एन.दी.टी वी के विज्ञान प्रतिनिधि ने इसरो उपग्रह लांच केंद्र में जो तमाशा किया था वह मीडिया के दृष्टिकोण से हमें वाकिफ कराने के लिए काफी था.
भारत के वैज्ञानिक व्यापारी नहीं हैं और न ही व्यावसायिक मानसिकता वाले हैं. इसलिए इनके लिए 'कनफ्लिक्ट ऑव इंटरेस्ट' जैसी भी कोई बात नहीं. अपने वैज्ञानिको को 'नौकरशाह और निकम्मे' कहने वाला अधिकाँश भारतीय मीडिया कोरोना महामारी के इस दौर में कुछ तमीज तो सीख ही गया है अन्यथा एक ज़माना ऐसा था जब 'What ails ICMR' और 'सी.एस.आई.आर. के पचास प्रश्न वर्ष' जैसे लेख मीडिया ने प्रमुखता से छापे थे. अब पांसा पलट गया है. भारत में किसी भी प्रतिष्ठित मीडिया हाउस के पास अच्छे और विशिष्ट रूप से शिक्षित साइंस रिपोर्टर्स नहीं हैं. सिर्फ 'द हिन्दू' में एक होते थे, लेकिन वे भी शायद रिटायर हो गए हैं.
Now what these reporters and writers have discussed: it is not science but politics of science and the paparazzi constantly remained on the look for scandals in scientific institution. They have followed the western models of media rather than developing own.

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