खतों की कहानी और बड़े जमींदार परिवार (१९००-१९६५)

म्हारे कुणबे म्ह चार फौजी थे. मेरे पिताजी, दो ताऊ और काका. एक ताऊ तो दूसरी बड्डी लड़ाई के बाद जब फौज डिसबैण्ड की गयी तो एकमुश्त ९००रु. देकर पेंशन के साथ घर भेज दिए गए. उन्होंनें इटली, मिडिल ईस्ट और नार्थ अफ्रीका से चिट्ठियाँ लिखीं थी. तब इन पर ब्रिटिश क्राउन वाली टिकिट लगती थी. चौकस पहुँचती थी. वे छः साल रहे और इस दौरान करीब चालीसों चिट्ठी लिखी जो मेरे दादा जैलदार जुगलाल के नाम से आती थीं. गाँव में मिडिल का स्कूल था. इसीमें एक 'कान्ही वाले मास्टरजी' डाक का काम देखते थे. तफरी होने के समय वे खुद ही चिठ्ठी लेकर दादाजी को बैठक में दे आते. इनके खतों में युद्ध के बारे में कोई खास सूचना नहीं होती थी. सभी के ख़त सेंसर होते थे. ('हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन आर्मी पोस्टल सर्विस', एडवर्ड बी. प्राउड, तीन खंड, १९४७ और 'इंडियन आर्मी पोस्ट ऑफिस इन द सेकंड वर्ल्ड वॉर', दिलजीत सिंह विर्क). सिर्फ परिवार से सम्बंधित कुछ बाते होतीं, खेती और फसल के बारे और पशुओं के बारे, या फिर रुपए-पैसे की जरूरत के बारे और रिश्ते-नातों के बारे).
फिर दूसरे ताऊ जी थे. इनकी पोस्टिंग आदि के बारे मुझे सिर्फ इतना मालूम है कि इनकी आखिरी पोस्टिंग जालंधर में थी. ये ही मेरे दादाजी के कहने से मेरे पिताजी को सन १९४९ में अपने साथ जालंधर ले गए और फौज में भरती करा दिया. ये भी इनलैंड लैटर ही लिखते थे और वही बातें जो ऊपर कही गयी हैं.
सभी चिट्ठियों के मजमून करीब-करीब एक जैसे ही होते थे लेकिन सूचना और तारीख बदल जाती थी. ऐसे सैंकड़ों ख़त मेरे दादाजी के बैठक में उनके पलंग के पीछे दीवार में बनी हुयी अंगीठी के कार्निस पर बेतरतीब पड़े रहते थे जिनमें चौधरी छोटू राम द्वारा प्रकाशित किया जाना वाला जाट गज़ट भी होता था.
खतों का यह सिलसिला उस समय बंद हो जाता जब या तो ये लोग 'स्कीम' (मिलिट्री एक्सरसाइज) पर चले जाते या युद्ध में (१९६२ और १९६५). सभी ख़त स्कूल में आते थे और 'कान्ही वाले मास्टरजी' ही इन्हें बाद में हमें देने लगे थे. हम घर पहुंचा देते. सभी की भाषा पहले उर्दू होती थी, लेकिन बाद में मेरे पिताजी हिंदी में भी लिखने लगे. सन १९४९ में उन्होंनें रोहतक से जाट कॉलेज से ऍफ़.ए. की थी. इनकी मेट्रिक की लाहौर से जारी सनद और ऍफ़.ए. की सनदें मैंने सुरक्षित रखी हुयी हैं. दोनों के पंजाब यूनिवर्सिटी पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर और शिमला से जारी किया गया था.
इन खतों में बड़े भावपूर्ण अंदाज़ में बातें लिखी जाती थीं. परिवार की समृद्धि की बातें की जाती और खेतों और फसल की सेहत के प्रति चिंता जताई जाती.
सन १९६० में हमारा बड़ा परिवार चार जगह न्यारा हो गया अर्थात बंटवारा हो गया. इससे मेरे दादाजी, जो चार भाईओं में ज्येष्ठ थे, को बड़ा आघात लगा और वे कुछ महीने में ही सिधार गए. तभी भूमि की जोत को बड़ा करने के लिए पंजाब सरकार (उस समय हरयाना नहीं बना था) ने 'कंसोलिडेशन ऑव लैंड होल्डिंग्स' जैसा अभियान चलाया जो मेरे ताऊजी की देखरेख में पूरा हुआ. जैल्दारी तो सन १९५२ में ही ख़त्म हो गयी थी, लेकिन नम्बरदारी और सरपंची कायम थी. सो सरकारी अमले से सहयोग करने का उत्तरदायित्व ताऊजी पर था. नायब-तहसीलदार हमारे 'घेर' में ही रहते थे, वहीं उन्हें खाना दिया जाता था. बाकी की टीम चौपाल में थी. न्यारे होने के बाद भी 'इज्ज़त' या ठाढ़ बनाए रखने के लिए 'खेवट' (रिवेन्यु रिकार्ड्स में जमीन का खाता नंबर) को 'पाड़ा' नहीं गया जिसका खामियाज़ा हम आज भुगत रहे हैं. पचासादी दशक में देश में कोआपरेटिव फार्मिंग के लिए सरकार ने कोशिश की थी और बड़ी सुविधाओं की घोषणा हुयी. यह भी कि अगर मालिकाना हक़ जमीन का ज्यादा रकबे वाला है तो नहर में 'मोरी' भी अलग से दी जा सकती है. मेरे एक ताऊजी ने चिट्ठी लिख कर और छुट्टी पर (एनुअल लीव) आने पर भी दादाजी को बहुत बार कोआपरेटिव फार्मिंग के लिए उकसाया. लेकिन वे टस-से-मस नहीं हुए और हम चूक गए. तब बायिलोरूस ६५ हॉर्स पॉवर का ट्रेक्टर सिर्फ १५-२० हजार में आता था. जमीन का कुल रकबा १०० एकड़ था जो गाँव की चार दिशाओं में चार जगह थी. हम बड़े किसान थे. घर में चार हल, दो बैलगाड़ी, छः हाळी, १५-२० बैल, आठ-दस भैंस, तीन-चार गाय और पचासों काटडू-बाछ्डू थे. घर में ही दो पाळी थे. बंटवारा होने से सब बिखर गया.
खैर, दादाजी की बैठक उनकी मृत्यु के बाद दूसरे दादाजी के परिवार के हिस्से में आई तो उन्होंनें बड़े ही असंवदेनशील तरीके से साड़ी सजावट को हटा दिया. फॅमिली के और फौजियों के दर्जों फ्रेम किये चित्रों को फाड़ कर कुरड़ी पर फेंक दिया गया. छत वाला पंखा जो मूंगा 'ब्योहरा' हाथ से चलाता था, उसे उतार कर कहीं फेंक दिया गया. सैंकड़ों ख़त और जाट गज़ट भी हांडी में डाल कर गला दिया गए जिनसे बास्केट बना ली गयी. कुछ चूल्हे में जला दिये गए. यह एक किस्म की 'फॅमिली वार' थी. जहां दादाजी की टेबल कुर्सी लगी थी उस जगह चूल्हा बना दिया गया और सारा घर धुएं से भरने लगा. यह सिलसिला अगले ४० साल तब तक कायम रहा जब तक उन्होंनें भी आगे बँटवारा न किया.
मैं उस समय बच्चा ही तो था. हमें किसी बात की समझ नहीं थी. अब जाकर उन खतों, जाट गज़ट और फोटोग्राफ्स की वैल्यू मालूम हुयी. अब किसी के पास कुछ नहीं है. लेकिन मैंने होश संभालने के बात जो ख़त प्राप्त किये और लिखे उनकी प्रतियां फाइल में संभाल कर रखी हैं. सन १९७४ के बाद का मेरा सब निजी रिकॉर्ड और खतो-किताबत मौजूद है. अधिकतर हाथ से लिखा गया है. कुछ हिंदी में और बाकी का अंग्रेजी में. बड़े परवारों में खतों की यही कहानी हर जगह तो नहीं लेकिन अधिकतर किसान परिवारों में मौजूद है, सिवा उनके जिनके परवार की दूसरी पीढी सन १९०० के बाद से उच्च शिक्षित रही

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