टूरिज्म को बदलिए
सन १९९० के बाद से भारत में टूरिज्म की जो आंधी चली और जहां-जहां बड़ी संख्या में टूरिस्ट पहुंचे वहाँ का परिवेश इन ३० सालों में बिलकुल बदल गया है. जो जिसा था, जहां था अब वहा वैसा कुछ नहीं बचा. न देखने के लिए, न ही रिकार्ड्स या डॉक्यूमेंटेशन के लिए. लोगों ने अपने घरों को ऐसी माल से भर लिया जो लोकल है ही नहीं. बहुत सा सामान उस स्टेट का भी नहीं है. व्यापारी लोग और सरकारें खुश हैं कि इनकी आमदनी बड़ी और वे मालदार हो गए या हो रहे हैं, लेकिन इससे हमारे सांस्कृतिक परिवेश को बुरी तरह तबाह कर दिया. इसका प्रमाण उन चित्रों में माध्यम से उपलब्ध होता है जो सन १९८३ से पहले खींचे गए थे और अभी पिछले साल तक भी.
मैं पहली बार मनाली और रोहतांग सन १९८३ में गया था. तब मनाली बिलकुल एक गाँव जैसा था. लेकिन सन २०१३ में जब ३० साल बाद फिर से व्यास नदीघाटी में गया तो सब कुछ बदल चुका था. मुझे मनाली और कनाट प्लेस में कोई फिर्क नज़र नहीं आया. जब्बल से लेकर शिमला तक और आगे भी पंडोह डेम तक सब कुछ बदल गया था. जब कुछ नागरी सभ्यता जैसा हो गया था.
सन २०१० में पहली बार माही नदी घाटी में और अगले साल साबरमती नदी घाटी के गाँवों में गया और अनेक दिन बिताये. सब कुछ अनछुआ और नॉन-कमर्शियल था. अगले चार साल तक लगातार डूंगरपुर और बाँसवाड़ा के देहात में गया, लेकिन २०१६ में जाना छोड़ दिया क्योंकि अब वहाँ शहरी कॉमर्स का बोलबाला होने लगा था. आदिवासी संस्कृति के परिवेश पर प्रहार हो चुका था. यह सब कैसे हो रहा था, इसे जानना मुश्किल न था.
ऐसे टूरिज्म की जरूरत हमें पैदा ही नहीं करनी चाहिए थी. अब जो कुछ बचा है उसके बारे एक नीति बनायी जानी चाहिए. कोरोना काल में टूरिज्म बंद है, लेकिन जब फिर से शुरुआत हो तो उन संसाधनों पर अंकुश लगाना होगा जिन्होंनें हमारे देश के सांस्कृतिक परिवेश को पश्चिमी जीवन शैली के रंग में भिगो दिया. इस बारे गंभीर विमर्श की जरूरत है.
मुझे मालूम है यह बंद होने वाला नहीं क्योंकि सन १९६० आदि दशक में जो लोग उपरोक्त इलाकों में घूम चुके थे, छायांकन कर चुके थे उनसे मुलाक़ात होने पर मालूम हुआ कि मैंने जब यात्राएं की तब तक तो नागरी प्रभाव का प्रवेश हो चुका था. उनके उस समय के खींचे चित्र कुछ और ही कहानी कहते हैं. अब भारत के वे गाँव जो टूरिस्टों की पहुँच में आ चुके हैं वैसे कहाँ रहे जिनमें असली भारत के दर्शन हो सकें. आप कहेंगे मैं स्वार्थी हूँ और तरक्की नहीं चाहता. लेकिन तरक्की ऐसी न हो जो हमारी पहचान ही बदल दे! कई बार तो मैं अपने ही सन १९८६ के सन २०२० के चित्रों को देखकर यह महसूस कर सकता हूँ कि जो कह रहा हूँ वह सही ही है. हमें यूनान और मोरक्को के टूरिज्म से कुछ सूत्र पकड़ने की जरूरत है. हमारे यहाँ भ्रमण का 'स्वरुप' वह नहीं जो हमें प्रमोट किया है बल्कि वह जो भारत के लोगों को पहले से मालूम है. इस देश में यात्रा का प्रयोजन बिलकुल अलग तरह से 'डिफाइंड' रहा, समुद्र और स्थल यात्राओं के अलग से विवरण उपलब्ध हैं. वैसी यात्राओं के विवरण हमारी 'फोक लोर' का हिस्सा बन चुके हैं. इन्हें हम तलाशते नहीं और डिस्काउंट पर कमर्शियल फॅमिली टूर्स के झांसे में आ गए हैं. मेरे पास एक दुर्लभ (लेकिन पहले नहीं रही होगी) है 'किस्से -गंगा राम पटेल और बुलाकी नई के'. यह गंगा राम पटेल का ट्रेवलॉग है लेकिन 'फॉर्म' अलग है. विदेशी भाषाओं में यात्रा के बारे ऐसे शब्द है जो निरर्थक हैं लेकिन हमारे यहाँ एक शानदार शब्द है 'यायावरी'. यायावरी होटलों और लक्ज़री वाहनों में यात्रा पर निर्भर नहीं है. अभी कुछ समय पहले ही सबसे महत्वपूर्ण यायावरी सिद्धार्थ अग्रवाल ने की जिन्होंनें IIT, Kharagpur से एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में दीक्षित होते ही गंगासागर से गौमुख तक पदयात्रा की और बाद में बेतवा और केन नदियों के यमुना और गंगा में संगम स्थल से उद्गम की ओर गए. मैंने ऐसे लोगों की भरमार देखी है जो अपने गाँवों-खेतों को एक्सप्लोर नहीं करना चाहते, उस जगह के इतिहास और परिवेश के बारे लिखना नहीं चाहिते और वहाँ रहने वाले लोगों और पूर्व-पीढ़ियों के जीवन के हिसाब-किताब को नहीं समझना चाहिते, लेकिन गोवा में हनीमून मनाने जायेंगे या स्पोंसर्ड ट्रिप करके गोवा के बारे चमकदार कागज़ के रसाले में लेख लिखेंगे. इसीलिए भारत से हम दूर होते गए और एक झूठ के परिवेश में हम खुद को ग्लोबल सिटीजन मान बैठे. अपना गाँव छोड़कर शहर आये ९९% लोगों को अपने गाँव की तो क्या, अपने परिवार के इतिहास के बारे में शून्य जानकारी होती है. मैंने कहीं कोई 'ट्रिप' नहीं की लेकिन देश में पिछले ५० वर्षों में कई हज़ार स्थान देखे हैं. जहां भी, जिस भी उद्देश्य से गया, गाँव मेरे जेहन से गायब नहीं हुए. एक नगर देखा तो उसके निकट के १०-२० गाँव भी. नगर के १० चित्र खींचे तो गाँव के १००.
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