कल सुबह (i.e. yesterday morning on 18th of July 2021)
४.४५ पर अंबिकापुर से मित्र के साथ उनकी कर में उनकी पत्नी और ५ वर्ष के पुत्र के साथ दिल्ली के लिए चला तो दिशा रही उत्तर में जिला सोनभद्र के प्राकृतिक सुषमा से भरपूर क्षेत्र. पहले महानदी को पार किया. इस पर बना पुल दो साल पहले की बाढ़ की तीव्रता को झेल न पाने से एक तरफ कच्ची दीवार की तरह 'गिरड़' गया था. धन्य हैं हमारे लालची लोग! अब नया बन कर तैयार है, लेकिन हाईवे से कनेक्ट नहीं किया गया, सो कार को नदी में बने एक रैंप जैसे पुल से गुजारा. अभी इस स्थल पर महानदी अपने 'महारूप' में नहीं थी. विन्ध्याचल के ऊंचे-नीचे पहाड़ों के मध्य, खेतों में धान की रोपाई में व्यस्त किसान पुरुष और इनके परिवार की महिलाओं की व्यस्तता, गहरे-छितरे वनक्षेत्रों की ठंडी हवा के स्पर्श से रोमांचित होते हम लोग रेणुकूट के निकट से, रिहंद बाँध को पीछे छोड़ते हुए करीब १० बजे अहरौरा घाट के शिखर पर पहुंचे तो नीचे का दृश्य देखकर रोमांच और प्रसन्नता महसूस हुयी. एक बढ़िया-सा स्थान देखकर मैंने कार रुकवाई और सम्पूर्ण दृश्य को हमेशा के लिए न केवल स्मृति में बल्कि अपने पास रखे कैमरे से डिजिटल इमेज में संजो लिया.
पल्लवी कुजुर -मित्र की युवा पत्नी, तो दृश्यावली देखकर बोली ही उठी 'अंकल, यही देखते रहने का मन करता है.' उनका पुत्र खेलने लगा और बताने लगा 'दद्दू, वह देखो झील, वहाँ पहाड़ है, उधर सड़क है.' इस परिवार के कुछ चित्र लेकर मन हुआ कि जो भोजन सामग्री सुबह ४ बजे उठकर बनायी थी उसे ग्रहण करने का इससे उपयुक्त स्थल और नहीं होगा. किसी रोड साइड ढाबे पर बैठकर क्या मन होगा खाना लेने का? पल्लवी इशारा समझ गयी. आलू की सूखी सब्जी थी लेकिन इसे सरसों के तेल में सरसों के दानों के 'छौंक' में स्वादिष्ट बनाया गया था. ऊपर से करी पत्ता भी डाला गया था. साथ में थे साबुत प्याज जिनका छिलका उतार कर मुक्के के प्रहार से मैंने उन्हें तोड़ा. दूसरा शाक करेले का सूखा साग था. मेरे आग्रह पर ही गेहूं की रोटियों पर घी नहीं लगाया गया था. अर्थात वे 'निर्लेप' थीं. मैंने पहल की और एक रोटी में बीच दोनों शाक रखे और धीरे-धीरे चबाने लगा. प्लेट-चम्मच और दूसरे तामझाम यहाँ नहीं थे. ऊपर से ठंडी बयार भी चल पड़ी. मौसम बरसात का हो उठा, काले बादल पूरी घाटी में और पहाड़ों पर छा गए. बीच-बीच में कुदरत की इस नियामत पर एकाध संवाद भी. सभी प्रफुल्लित हो उठे. अभी सिर्फ २२५ मिलोमीटर ही तो आये थे! ९०० किलोमीटर गाड़ी चलाने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा मेरे युवा मित्र धनेश्वर को यहीं से मिली.
कुछ देर बाद ही सोन नद का पुल पार किया. इधर अल्ट्रा-टेक सीमेंट बनाने के लिए बिरला ग्रुप ने विशालकाय कारखाना लगाया है. रेलवे लाइन और सोन पर बना पुल भी दिखा. अब निकलना था बनारस की तरफ. हम लोग अंबिकापुर से बनारस रूट पर ही चल रहे थे. अब दिशा पश्चिम की ओर हो गयी थी. बहुत देर बाद, शायद तीन घंटा बाद गंगा जी दिखाई दी क्योंकि हम पुल पार करके अब नेशनल हाईवे नंबर-२ पर आ चुके थे. अब हमारा रुख था लखनऊ की तरफ. इलाहाबाद के उत्तर की तरफ से हाईवे पर प्रतापगढ़ की ओर निकले तो पांच किलोमीटर लंबा जाम लगा था. उधर का सड़क मार्ग अच्छा है, इसीलिए उधर गए. दोनों तरफ से यातायात बंद था. दो ट्रक हमारे मार्ग पर भीड़ गए थे और एक बराबर वाले पर एक ट्रालर उठला पड़ा था.. यातायात पुलिस नदारद थी. किसी तरह गाड़ी को बायपास से नीचे आकर सर्विस रोड से निकाल कर फाफामऊ-प्रतापगढ़ रोड पर लाये. इसमें एक घंटा अतिरिक्त लगा. दिन भर चलते रहे. कहीं १० मिनट के लिए रुके तो फिर से यात्रा शुरु हो गयी. आखिर सांय ५ बजे लखनऊ से निकल पाए. सावधानी यह रखी कि न तो अधिक बार चाय पी और न ही अधिक खाना खाया. सुबह अहरौरा घाट पर ही सबने दो-दो रोटी खायी थी. फिर लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे और इससे जुड़े हुए यमुना एक्सप्रेस-वे पर चलते ही रहे.
यमुना एक्सप्रेस-वे के सर्विस एरिया में रुके. ९.३० हो चुके थे. मैंने एक चाय ली और पल्लवी ने 'छोटू' के लिए एक बर्गर. इधर खाने का पूरा सामान ही मुझे 'कूड़ा' सामान लगा. सभी यूरोपियन फास्ट-फ़ूड आइटम्स. खाने की थाली का रेट रु. २८०. बर्गर के ११० रु. देने पड़े. लूट. रेस्टोरेंट बिलकुल गंदा और unhygienic था. यहाँ से २० मिनट बाद निकले तो १२ बजे शाहदरा में ज्योतिनगर में, घर के सामने ही गाडी रोकी.
एक बात और. अहरौरा घाट से निकलते ही बरसात शुरू हो गयी थी जो नोइडा तक होती रही. कुछ देर बाद, रात के करीब २ बजे ज्योतिनगर में शुरू हो गयी. मैं तो हाथ-मुंह धोकर जैसे ही पलंग पर पड़ा, घोड़े बेचकर सोया रहा. सुबह ६.३० पर आँख खुली. १५ मिनट बाद पल्लवी को जगाया तब चाय मिली. धनेश्वर भी घोड़े बेचकर सोते नज़र आये, लेकिन ७.३० पर वे भी उठ गए और एक घंटा बाद मुझे शाहदरा मेट्रो स्टेशन पर छोड़ गए. तब मैंने जमुना नदी पार की; अर्थात कल, एक ही दिन में भारत की चार महान नदियों के दर्शन सुलभ हुए.
मेट्रो से होते हुए १० बजे मैं बहादुरगढ़ पहुंचा और बेटे के रोहतक से आने की प्रतीक्षा करने लगा. भारी बरसात के बीच वह ११ बजे ही पहुँच पाया. ठीक बारह घंटा बाद मैं अपने घर पर था. इस बीच पूरे तेरह दिन जज्गा गाँव में और दो दिन अंबिकापुर में पल्लवी की मायके में बिठाये.
६-७ साल पहले भी धनेश्वर के साथ जज्गा आया था. तब हम लोग बिलासपुर तक रेल में आये थे. वहाँ से अपनी गाड़ी लेकर जज्गा गाँव आये और इसी गाडी से अंबिकापुर-रेणुकूट-सीधी-रीवा-छतरपुर-झाँसी-ग्वालियर,आगरा होते हुए ज्योतिनगर आये थे. बिलासपुर से दिल्ली का यह रूट १६५० किलोमीटर का पड़ा था. लेकिन एक रात के लिए ग्वालियर में रुक गए था. अबकी बार एक ही ड्राइव में ११५० किलोमीटर तय किये. धनेश्वर जी ड्राइविंग में कुशल हैं और इनमें स्टेमिना भी खूब है. इनका आभार कि सुरक्षित पहुंचे. गाड़ी रही हुँदै की क्रेट. कुल रु.६००० का फ्यूल खर्च हुआ. सड़क यात्रा के अनुभव भी खूब होते हैं. लेकिन इस तरह नहीं कि गोली की तरह छूटो और लक्ष्य पर ही रुको! इसीलिए मैं स्लो ट्रेन में चलने का लुत्फ़ उठाने वालों में से हूँ. शताब्दी और राजधानी में तो मुझे डर लगता है. जहाज तो सबसे बेकार लगता है.
इस बार जज्गा और आसपास की कुछ तस्वीरें और अहरौरा घाट की खूबसूरती की भी.
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