यायावर आदिम जातियाँ, महत्त्व और वर्तमान राज

सन १८७१ में एक एक्ट बनाकर अंग्रेजों ने हमारे देश की ३१५ घुमन्तु जनजातियों और इनमें से १९८ आदिम जनजातियों को 'नोमैडिक ट्राइब्स' और 'नोटिफाइड ट्राइब्स' बना डाला। हमारे सम्राटों, महाराजाधिराजों, राजाओं, सुल्तानों, बादशाहों तक ने ऐसा नहीं किया। भारत के लोगों की विविधता जिन चार मुख्य वर्णों में निहित है, उसे अंग्रेज और विदेशी इंडोलॉजिस्ट समझ ही न पाए और उन्होंनें निष्कर्ष निकाल लिया भी भारत का समाज एक बंटा हुआ समाज है जिसमें उंच-नीच बहुत है, धर्म और वर्ण के आधार को लेकर समाज के आचार-विचार, व्यवहार, किर्या-कलापों, धार्मिक अनुष्ठान, रिश्ते-नाते, रोटी-बेटी के नाते, भू-स्वामित्व, स्थायी निवास, संपत्ति, प्रवेश और अनुगमन (एंट्री एन्ड मूवमेंट) सब रेगुलेटेड है और डिस्क्रिमिनेशन अर्थात भेद बहुत तीव्र है. उन्होंनें ऐसा दिखाया जैसेकि यूरोपियन -इंडो-आर्यन्स, कॉकेशन्स, उत्तर के मंगोलॉयड्स और निग्गर्स के अलावा संकर नस्लों के बीच सब सामंजस्य है और भेद नहीं। इन जातियों-प्रजातियों में सब बराबर हैं और सबकुछ की खुल्लस है. क्रिश्चियन्स, मुसलमान, बौद्ध या नास्तिक होने के बावजूद मनुष्य समाज में वर्गीकरण है और यह पूरी दुनिया में मौजूद रहा है.

मैनें जिंदगी में भारतीय लोगों के अलावा अंग्रेज, जर्मन, चीनी, ईरानी, फ़्रांसिसी, जापानी, नेपाली, बौद्ध, मुसलमान, और क्रिश्चियन के साथ भोजन किया है और इनके साथ रहा और घूमा हूँ. भारत में भी कम से कम १५ जातियों के लोगों के साथ भोजन कर चुका हूँ. कम से काम तीन-चार जनजाति वाले मित्रों के साथ सहभोज कर चुका। इनमें से तीन-चार लोगों के घर भी भोजन खा चुका हूँ, नाश्ता कर चुका हूँ. एक ही थाली में भोजन नहीं किया, लेकिन घर से लाया उनका भोजन जरूर ग्रहण किया।
हमनें कभी किसी की जाति या रहन-सहन के बारे में टोका-टाकी या नेपथ्य में निंदा नहीं की. आज तक मेरा भी धर्म कायम है, मेरी मानसिक और शारीरिक शुद्धता भी कायम है और उन सभी मित्रों से जिनसे संपर्क है,आज भी सौहार्द कायम है. मुझे कोई नुक्सान न हुआ, न उनका। बल्कि मुझे तो इस विविधता में आनंद ही नज़र आया.
कोई भी समाज असंगठित नहीं है, न ही शक्तिहीन और न ही व्यवहार में त्रुटिविहीन है. आदिम और घुमन्तु जातियों के अपने बड़े, अखिल भारतीय संगठन है. इनमें इनका अपना कानून चलता है. और, देश का भी. एक हैं 'भारतीय आदिमजाति सेवक संघ' जिसकी भारत गणराज्य संघ के १७ प्रदेशों में शाखाएं हैं. आदिम जनजाति संघों की मौजूदगी अत्यन्त प्राचीन समय से है,शायद मौर्य -काल से ही. पाणिनि ने तो २७०० वर्ष पहले ही भारत की जनजातियों को विभिन्न गोत्रों से आइडेंटिफाई करके इनका क्लासिफिकेशन 'शिवादि' और 'क-शिवादि' श्रेणियों में किया था. काम के हिसाब से वर्ण और इनमें भी अनेक भेद तो पाणिनि काल से भी पहले के हैं जैसेकि पुराण ग्रंथों से मालूम होता है.
अत्यंत समझदार पुरुषों ने भारतीय व्यवस्था में इन्हें न तो घुमन्तु कहा और न ही नोमेड और न ही जिप्सी। हमारे यहाँ की शब्दावली सम्मानीय रही और मनीषियों ने इन्हें यायावर जनजाति कहा. हमारे यायावर पूर्णकालिक और अंशकालिक रहे। हमारे देश में कम से कम 22 तो पशुपालक जातियाँ ही हैं जो अंशकालिक और पूर्णकालिक, दोनों ही हैं। इन्हें अपने 'सीमाणे' (अपने गाँव के सीमक्षेत्र) का ही नहीं उन क्षेत्रों की भी चप्पे-चप्पे की जानकारी रहते है जहां से ये गुजरते हैं और जिस क्षेत्र में पशुओं को दिन भर चराते फिरते हैं, जैसेकि रबारी, गुज्जर और गद्दी। करीब दस की संख्या में पेशेवर यायावर जातियाँ हैं जैसे मदारी, नट, सपेरे, सिकलीगर और बाज़ीगर। पाँच-सात अपराधी यायावर हैं जैसे सांसी, कंजर, बावरिया, डोम और झल्लीमार। (माफ कीजिये, यह क्लासिफिकेशन मैंने नहीं की है और नोटिफिएड ट्राईब्स में से है)। ये वास्तव में अपराधी पेशेवर हैं भी या नहीं, यह तो सब को मालूम ही होगा। पुलिस में अभी तक इन्हीं लोगों में से अपराध में लिप्त आरोपी पकड़े गए हैं। व्यापारिक यायावरों में बंजारा या लबाना लोग आते हैं। लक्खी बंजारे का नाम तो बहुतों ने सुना होगा। इनका मुख्य काम कूछ करती सेना को खाद्यान्न और दूसरी वस्तुएं सुलभ करना था। आजकल इनकी हालत बहुत खराब है। सन 1880 तक भी ये लोग अपना पुश्तैनी काम करते थे। अगर सेना कूच पर नहीं है तो ये नमक और खांड का व्यापार करते थे। 15 के करीब जातियाँ हमारे समाज में भिक्षुक यायावर हैं जैसे जोगी, सींगिकाट और रंगस्वामी।
देश में इनकी आबादी 50 लाख से ऊपर होगी। इनमें मैंने मीणा, गिरिवासी और ओराओं या मणिपुर ओड़ीशा के आदिवासियों को शामिल नहीं किया है। हालांकि नोटिफिएड ट्राईब्स में ये लोग भी आते थे। अब बहुत सी जंजातियों, आदिम जातियों के नाम हटा दिये गए हैं।
यायावर जनजतियों की भूमिका को औफ़िशियली कभी रेखांकित नहीं किया गया। मैं सिर्फ कुछ उदाहरण दूंगा। एक यायावर कौम है सिरकीबन्द। ये लोग सरकंडे और घासफूस के इस्तेमाल से जिस शानदार तरीके से बंधाई करके एक मोटी परत की पर्देनुमा रचना बना सकते हैं वैसा दूसरा नहीं कर सकता। इन्हें छप्पर बँधवाने के लिए अक्सर बुलाया जाता था। दूसरी कौम है 'ढेहे'। ये लोग जंगल से मूँज घास की जड़ों को धोकर, सीधा करके या 'सूंत' कर एक खास तरह की बड़े आकार की ब्रश 'कूच' बनाया करते जिसे जुलाहा इस्तेमाल करता था। अब तो हरयाणा में जुलाहों ने काम बंद कर दिया है, लेकिन मैंने इनके पास ढेहा लोगों द्वारा बनाए कूच देखे हैं। ऐसा कूच किसी फ़ैक्टरी में कभी नहीं बनाया जा सकता। इस कूच से ये 'ताणी' को सूँतते थे और इसे आटे के घोल में डुबो कर सूटत के धागों को कड़ा किया करते ताकि बुनते समय धागा बार बार टूटे नहीं। एक कौम और है जिसका जिक्र नहीं हुआ। वह है ओड या ओढ। ये लोग मिट्टी का काम करने में दक्ष थे। देश में राजाओं के वक़्त के अधिकतर पुराने तालाब इन्हीं लोगों की मेहनत से अस्तित्व में आए थे। उदयपुर की पिछोला झील को इन्हीं लोगों ने तैयार किया था। सेंट्रल इंडिया में इनके बिना कोई तालाब बनाया जाना संभव ही न था। ऐसी थी इनकी महत्ता।

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