म्यूजिक, परफॉरमेंस एन्ड टेक्स्ट
प्रादेशिक और जनपदीय संगीत, नाट्य और साहित्य के नाते हरयाणा के पांच लोक-भाषायी क्षेत्र कभी विरक्त नहीं रहे. लेकिन मॉडर्न या पोस्ट-१९७० आदि का लोक-परिदृश्य बिल्कुल बदलने लगा जिसकी प्रमुख वजह रही वास्तविक दृश्य प्रस्तुतियों का क्रमशः ह्रास और टीवी, टेप्ड म्यूजिक के बाद यू-ट्यूब और डिजिटल मूवी मीडिया का ज़ोर. फिर भी विश्व-विद्यालयी स्तर पर सन १९८३ से कुरुक्षेत्र वि.वि. से जिस बात की शुरुआत हुयी उसमें किताबी और शास्त्रीय पक्ष को अगर हम कुछ देर के लिए नेपथ्य में ले जाएँ और वक़्ती धरातल को लेकर बात करें तो परफॉर्मन्स को लेकर कई तरह के सवाल और शंकाएं उतनी लाज़मी है.
हरयाणा राज्य के जन्म के समय यहां सिर्फ कुरुक्षेत्र वि. वि. ही वज़ूद में था जिसके अंतर्गत उस समय सभी जिलों के कॉलेज हुआ करते। बाद में जैसे-जैसे सिरसा, जींद, भिवानी, रेवाड़ी, गुड़गांव और रोहतक में नए वि.वि. कायम हुए वैसे कुरुक्षेत्र वि.वि. परिसीमन क्षेत्र से अनेक कॉलेज निकल कर अन्य वि.विद्यालयों से सम्बद्ध हो गए. कल्चर या सांस्कृतिक गतिविधियां महाविद्यालय और वि.विद्यालयी शिक्षा का अनिवार्य अंग समझी गयी. कुरुक्षेत्र वि.वि. में उन दिनों आचार्य भीम सिंह मलिक की देख रेख में संभवतः पहली बार 'फोक' या लोकनृत्य और लोक-गायन प्रस्तुति का आगाज़ हुआ. इनसे पहले कुछेक वर्ष के लिए किन्हीं और ने यह जिम्मेवारी संभाली था. कुरुक्षेत्र वि.वि. ने लोक-प्रस्तुतियों की परंपरा को न केवल कायम रखा बल्कि प्रस्तुतियों की संख्या दो-चार बढ़ाकर अब बीसियों कर दी हैं. इनमें से 'सांग' प्रस्तुति को सन २००३ में शामिल किया गया.
इसी परप्रेक्ष्य में हमें वि.वि और कॉलेज परिसरों से बाहर 'लोक' प्रस्तुतियों के अस्तित्व, शैली, गुणवत्ता, लोकप्रियता, फाइनेंस, लॉजिस्टिक्स, प्रशिक्षण और उस्तादों के अलावा समाज में तेज़ी से बदल रहे रवैय्ये और जीवन शैली नज़रअंदाज़ किये बिना 'एक्सटर्नल' और 'इंटरनल' फैक्टर्स का अध्ययन करें तो पाएंगे कि लोकप्रियता कमाने के चक्कर में 'टेक्स्ट' या 'साहित्य' गायब तो नहीं हुआ, लेकिन शैली में बड़ा बदलाव आया, कॉस्ट्यूम बदल गयी, संवाद में भी हेरा-फेरी होने लगी, लोकमंच की बनिस्पत 'स्टेज' और आर्टिफीसियल लाइटिंग को प्रेफरेंस दी जाने लगी और एक तरह से फिजिकल एनवायरनमेंट और ऑडियंस ही बदल गयी. ऐसे में पारम्परिक और एक्सपेरिमेंटल के बीच कुछ टकराव के स्वर उभरने लगे और इसे तीव्र किया 'प्रोफेशनलिज्म' और हरयाणवी फिल्म प्रोडूसर्स ने. टेक्स्ट्स और परफॉरमेंस को लेकर हरयाणा के वि.विद्यालयों के बौद्धिकों और हरयाणा सरकार में भी कल्चर डिपार्टमेंट ने कभी इस मुद्दे पर मस्तिष्क मंथन नहीं किया। इससे फायदा यह होता कि वर्तमान स्थिति को लेकर भविष्य में लोक-प्रस्तुतियों का स्वरुप क्या रहेगा। इसी प्रसंग में एक बात जोड़ना चाहूंगा कि बौद्धिकों के पास 'रिफरेन्स' और 'रिसर्च' लिए कोई ऑथेंटिक टेक्स्ट नहीं थे बल्कि वे 'गुटके' या लघु पुस्तिकाएं थीं जिन्हें देहाती पुस्तक भण्डार जैसे प्रकाशकों ने छापा था. इन्हीं गुटकों को लेकर लोक-प्रस्तुतियों -जैसे कि सांग, की स्क्रिप्ट तैयार की गयीं। बौद्धिकों ने इसे एडाप्ट किया और आवश्यक सुधार जरूर किये। इन परिदृश्य की भी बौद्धिक समीक्षा कभी नहीं हुयी।
अन्य राज्यों, जैसेकि छत्तीसगढ़ से निकले विख्यात नाट्यकार और स्क्रिप्ट राइटर हबीब तनवीर को अगर कुछ देर के लिए भूल जाएँ तो अन्य राज्यों में भी कमोबेश स्थति वही है जो हरयाणा में है. कुछ मामलों में जैसेकि ओड़िशा, केरल और उत्तर पूर्वी राज्यों में परम्परागत प्रस्तुतियों को कड़ाई से संभाल कर रखा, लेकिन हरयाणा में अब इस ओर कुछेक लोक-संस्कृति कर्मी गंभीर चिंतन तैयार दीखते हैं. मेरे हिसाब से विधा की प्रस्तुति और टेक्स्ट में एक संतुलन बना रहना चाहिए जिसके लिए हमें प्रस्तुति से पहले इस बारे एक नैरेटिव बनाकर ऑडियंस से शेयर करने की हमेशा जरूरत बनी रहेगी। यहां तो क्या, देशभर में 'लोक' को लेकर स्थिति ऐसी हो गयी है की जो व्यक्ति सन १९५०-६ के सुनहरी दौर में व्यस्क न था और उसने सांग देखे ही नहीं क्योंकि वह उस समय पैदा ही न हुआ था, वे लोग आज सांग प्रस्तुतियों में निर्णायक की भूमिका का निर्वाह करने पहुँच जाते हैं ! ऐसे में खाली टेक्स्ट किसी की क्या मदद करेगा?
ReplyDeleteThanx for sharing.
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