पहली बात तो यह कि धार्मिक शब्द के साथ 'पर्यटन' को जोड़ना सांस्कृतिक रूप से अनुचित है। रिलीज्यस-टूरिज़्म जैसे शब्द-युग्म को क्वाइन करने वाले (अ) सास्कृतिक सोच के भारत में पर्यटन जैसे नए कमर्शियल प्रशासनिक तंत्र के अधिकारी यह नहीं जानते कि इस शब्द-युग्म के लिए हमारे देश के मनीषियों ने तीर्थ-यात्रा शब्द पहले से ही गढ़ा हुआ है। दूसरे किस्म की यात्राओं के लिए देशाटन या भ्रमण जैसे सुनियोजित और सुसांस्कृतिक शब्द भी मनीषियों ने सुझाए हैं। पर्यटन में ''कॉमर्स' का बोलबाला जब से बढ़ाया गया है तभी से ऐसे विकार हमारे सांस्कृतिक जीवन में प्रवेश कर गए हैं।
अब 'घुमक्कड़ी' शब्द
को ही लीजिये। शिष्ट और परिष्कृत हो चुकी हिन्दी भाषा में एक शब्द है 'यायावरी', लेकिन
भावार्थ में और वास्तविक स्वरूप में यह घुमक्कड़ी से बड़ा है। देखा जाये तो ज्ञात
इतिहास में भारत भूमि में सबसे बड़े यायावर मुझे गौतम बुद्ध नज़र आते हैं। प्राचीन
भारत में जीवक समान देश के बड़े लोक-चिकित्सक और आधुनिक भारत में लोक-चिकित्सा की
दुनिया में वैद्य बलराज महर्षि (वे 1980 आदि दशक में आंध्र प्रदेश सरकार में आयुर्वेद
के सलाहकार रहे और अपने यायावर गुरु के साथ यायावरी करते हुये आयुर्वेद के रहस्यों
को समझते रहे) बड़े यायावर रहे। असल में यायावर बने बिना न तो आयुर्वेदिक ज्ञान से
और न ही लोक ज्ञान से निदान और चिकित्सा संभव है।
घुमक्कड़ी तो यायावरी बिलकुल नहीं है
बल्कि यह एक सुविधाजनक प्रयास मात्र है जिसमें छोटा और बड़े स्तर का एडवेंचर तो है
ही। अब तो यायावरी को 'डिस्टार्ट'
करके इसकी शाखाएँ भी बना दी गई हैं
जैसे कि एडवेंचर टूरिज़्म! मेडिकल और 'मसाज एन'
प्लेजर' टूरिज़्म भी है जो ki थाईलैंड
में होता है। स्नो एंड डेज़र्ट टूरिज़्म भी है;
पुरातत्व और इतिहास टूरिज़्म के अलावा
वैदर-टूरिज़्म भी है यथा उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दी है तो दक्षिणी गोलार्ध में चले
जाना है और मैदानों में तपिश बढ़ गई है तो पर्वतों के आगोश में या ठंडे प्रदेशों
में प्रवास के लिए नुकलें और होम-स्टे का आनंद उठायें, आदि-आदि।
लेकिन पर्यटन, धार्मिक
नहीं होता। घुमक्कड़ों को अपना शब्द सामर्थ्य जरूर बढ़ा लेना चाहिए ताकि वे सही जगह
के लिए, सही सिचुएशन के लिए उपयुक्त या सटीक शब्द
इस्तेमाल करना सीख लें। घुमक्कड़ी, पर्यटन और तीर्थ-यात्रा के अलावा यायावरी
शब्दों के सामर्थ्य और भावार्थ को गड्डम-गड्ढ न करें। आधुनिक समय में अगर कुछ
सीखना है तो देवी अहिल्या बाई के जीवन से सीख लें जिनका तीर्थाटन और भारत के करीब
सभी स्थलों पर करवाया गया नवनिर्माण और जीर्णोद्धार का काम एक मिसाल है। उनका काल
इतिहास में हमें बहुत पीछे नहीं बल्कि सिर्फ 200
साल पहले ही ले जाता है। इसके अलावा
सीखने के लिए सिख धर्म के अनुयायियों के तीर्थाटन से खुछ सीखें जिसे वास्तव में ही
तीर्थाटन मान लेना चाहिए। जैनियों की प्रशंसा करनी चाहिए जिनके सभी तीर्थ स्थल
शानदार तरीके से व्यवस्थित हैं जहां कमर्शियल गतिविधि की कोई गंध नहीं है।
हमने अपने तीर्थ-स्थलों का
कमर्शियलाईज़ेशन तो नहीं किया और न ही किया जा सकना संभव है या ऐसा विचार भी मन में
लाना कुकर्म है, फिर भी अधिकतर पॉपुलर मंदिर परिसरों के बाहर और
आसपास के परिवेश को भी एक तरह के कमर्शियल बनने के आगोश से हम बचा नहीं पा रहे।
राजस्थान के कुछ आस्था-स्थलों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें (देवस्थल
विभाग द्वारा देखरेख में लिए गए) तो भी उत्तरी राजस्थान में सालासर में श्री
हनुमान मढ़ी या और भी उत्तर की ओर खिसकें तो बद्रीनाथ जी से लेकर तमिलनाडु के
दक्षिणी छोर तक और पूर्व देश में कामाख्या से पश्चिमी छोर पर द्वारकाधीश तक मुझे
तो ऐसा ही आभास हुआ है।
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