भारत में शब्दों की सांस्कृतिक अनुकूलता Cultural fitness of words in vernacular Indian language -Hindi

भारत में शब्दों की सांस्कृतिक अनुकूलता


'दीपोत्सव' क्या होता है? 'दीपावली' अर्थात कतार में रखे दीप या दीयों की कतार (आवली) तो जंचता भी है लेकिन दीपोत्सव का अर्थ तो कुछ और ही है. वनवास के बाद राम के अयोध्या लौटने पर जब नगरवासियों ने घी के दीये जलाए थे और उत्सव जैसा माहौल बना तो उसे दीपोत्सव तो नहीं ही कहा गया. किसी अवसर पर या उत्सव के मौके पर अगर दीपमाला लगायी जाती है -जैसे कि आजकल पुत्र जन्म पर या विवाह के अवसर पर भी, तो उसे दीपोत्सव तो नहीं ही कहेंगे.......... प्रकाशोत्सव भी नहीं. उत्सव पर प्रकाश किया जाता है क्योंकि प्रकाश ही प्रसन्नता है, समृद्धि है और जीवन इसी के कारण है, जैसे कि सूर्य के प्रकाश के कारण. लेकिन अति-प्रकाश या आर्टिफिशियल प्रकाश के कारण नहीं. इसी प्रकार चंद्रोत्सव और सूर्योत्सव कहना भी त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है. मदनोत्सव कहना ठीक है, सूर्योपासना ठीक है लेकिन सूर्योत्सव जैसा शब्द या आयोजन जैसी बात मुझे भी प्राचीन साहित्य में कहीं दिखी नहीं.

वर्षों पहले एक एक नौसिखिये लेखक ने एक क्षेत्रीय अखबार के लिए जो लेख लिखा वह बीकानेर शहर में प्रतिवर्ष 'पौष' मास में आयोजित किये जाने वाले मेले से सम्बंधित होना चाहिए था जिसमें बड़ी संख्या में ऊंट लाये जाते हैं. इनके श्रृंगार की प्रतियोगिता आयोजित होती है. यह व्यक्ति पेशे से ड्राइंग मास्टर है, लेकिन जब मैंने उससे कलर स्पेक्ट्रम के बारे में पूछा तो कोरा निकला. आर्गेनिक और इनआर्गेनिक कलर्स के बारे में भी इसे कुछ खास नहीं मालूम, रंग की आभा, चमक और दमक की बारे में पूछने पर यह विचलित हो गया था. सो, बिना जाने-समझे इसने लेख में अनेक जगह 'कैमल फेस्टिवल' का अनुवाद किया 'ऊँटोत्सव'. संधी तो ठीक की लेकिन भाव सम्प्रेषण की सांस्कृतिक शब्दावली के यह अनुकूल नहीं या जंचता नहीं.

ऐसी ही सब बेकार की बातें अब स्लोगन के रूप में प्रान्तों के पर्यटन विभाग और निगम अपना चुके हैं जो अनुपयुक्त लगता है. राजस्थान टूरिज़्म कारपोरेशन, बीकानेर और और पुष्कर के सालाना मेले में विदेशियों को आकर्षित करने के लिए इन्हें 'कैमल फेस्टिवल' कहना अधिक पसंद करता है. इनके स्लोगन राइटर्स सांस्कृतिक आयोजनों के नाम और अर्थ सही से जानते भी हैं या नहीं, मालूम नहीं. इन मेलों में अच्छी नीयत से टूरिज़्म वालों के घुसने से सैंकड़ों सालपहले से इन मेलों का आयोजन होता रहा है और उत्सवप्रिय अनेक लोग इनमें अपने तरीके से बिना किसी निमंत्रण पत्र के आते रहे हैं. मेले में स्थानीय लोग अनेक प्रकार की ऐसी गतिविधियां करते रहे हैं जो दूसरे लोगों के लिए मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक साबित हुईं. मेले में क्षेत्रीय भौगोलिकता का वैविध्य देखने को मिलता है. दूरिज्म वाले इन सबका बारीकी से सांस्कृतिक-वैज्ञानिक अध्ययन नहीं करते और न ही मेले के दौरान लोगों की जीवन-शैली का अध्ययन करते हैं. जो भी अध्ययन अभी तक हुए हैं वे सब पर्यटन में वृद्धि करने या होटल इंडस्ट्री को मेले के अनुरूप ढलने और कमाई बढ़ाने के लिए ही हुए हैं. हिंदी-हिंदी चिल्लाने वाले प्रोमोटर्स और पैसे से इसका प्रसार-प्रचार अथवा शासकीय या सत्तायुक्त प्रभाव से हिंदी बढ़ने वाली नहीं. भाषा सांस्कृतिक रूप से अपनी पैठ बना चुकी है. इसके लिए किसी नवजागरण की जरूरत नहीं, लेकिन हिंदी भाषा बरतने वालों को संस्कृति-अनुरूप शब्द सागर का ज्ञान होना जरूरी है.

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