मरीज़ और मनोरोगी
सम्मानसूचक संबोधन
मानसिक संतुलन डिग जाने पर या मनोरोग होने पर क्या व्यक्ति
को 'पागल' घोषित करना
उचित है?
आम झोंक में लोग एक मेंटल एसाइलम या शेल्टर को 'पागलखाना' लिखते हैं. यह बिलकुल अनुचित प्रयोग है. संस्कृत भाषा में पागलखाना नाम का कोई शब्द नहीं हैपरन्तु मनोविकार है जिसे
हिंदी में भी इस्तेमाल किया जाता. अग्रेजी भाषा
में पागल के लिए ल्युनेटिक शब्द है. पर्याय के तौर से इम्बेसाइल, मेनियक और
सायकोटिक भी हैं.
लेकिन 'पागल' शब्द के नज़दीक किसी का भावार्थ नहीं बनता. मेडिकल लिटरेचर में एक मेडिकली चैलेंज्ड व्यक्ति के लिए किस
प्रकार की शब्दावली होनी चाहिए इस पर बहुत बात हुयी है और अब तो गाइडलाइन्स भी
बनायी जा चुकी है.
सभी मेडिकल प्रोफेशनल्स को लिखते और बोलते समय इन्हीं
शब्दों का इस्तेमाल करना होता. पहले हम लंगड़ा, लूला, काणा, अंधा, बूचा, चितकबरा, गंजा, भैंगा, बांझ औरत, ना-मर्द, पागल-पगली शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से करते थे. लेकिन अब इन पर रोक है. क्या आगरा या रांची के पागलखानों पर आज भी 'पागलखाना'
लिखा हुआ है. शायद नहीं.
मेडिकल कॉलेज में मनोरोग विभाग होता है.मैंने देखा तो नहीं है, लेकिन पागलखानों पर 'मनोरोग सुधार गृह' जैसे शब्द लिखे होने परिहार्य हैं. इसके लिए एक शब्द 'सैनिटोरियम' भी प्रचलन में रहा है.
लेकिन इसे अधिकतर तपेदिक के रोगियों के लिए स्वास्थ्य लाभ
के लिए पर्वतों पर बनाए जाने का चलन भारत में अंग्रेजों ने डाला. आगरा और अन्यत्र जो भी पागलखाने थे इनके नाम के आगे अमूमन Institute of Mental Health and Hospital मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं अस्पताल लगाया जाने लगा. इससे लोगों के मन के अन्दर से 'डर'
की भाव जाते रहे. अभी आज एक अखबार ने आगरा में Institute of Mental Health and
Hospital
को फिर से पागलखाना लिखा है और इसकी स्थापना के इतिहास की
बाबत जिक्र किया है.
वैसे तो सब चलता है क्योंकि आमजन इसे पागलखाना और Hospital को हॉस्पिटल न कहकर अस्पताल ही कहता है, लेकिन शालीन शब्दों के इस्तेमाल का प्रचलन या अर्द्ध-कानून अथवा गाइडलाइन्स (Link
to paper
-t.ly/ry5xw) बनाने का आशय यही कि व्यक्ति के सम्मान को बरकरार रखा जाना
चाहिए.
रांची वाले संस्थान का नाम अब सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़
साइकाइट्री है.
आगरा स्थित पागलखाने का नाम मानसिक स्वास्थ्य संस्थान एवं
चिकित्सायल किया गया है.
पागलखाना शब्द देश के किसी भी शरणस्थल के नाम के आगे या
पीछे कभी इस्तेमाल नहें हुआ. सिर्फ इतिहास
लेख में विवरण के लिए पूर्व नाम लिखना उचित माना जा सकता है. ऐसी असावधानियां प्रिंट मीडिया में आम हैं जिनकी ओर
संपादकों का ध्यान अक्सर नहीं जाता. असल में प्रिंट मीडिया का साइज़ और प्रिंटेड न्यूज़ मटेरियल की वॉल्यूम इतनी बड़ी
है कि इस ओर कोई ध्यान ही नहीं देता. एडिटर्स का काम तो यही देखना है कि क्या गलत है क्या नहीं!
लंगड़े-लूले को या
अंधे को अब शारीरिक रूप से अक्षम या फिजिकली चैलेंज्ड कहा जाता है. शॉर्ट में डॉक्टर लोग क्या लिखते हैं, मुझे मालूम नहीं.
(Trends in the Use of Common Words and Patient-Centric
Language in the Titles of Medical Journals, 1976-2015. Link to paper -t.ly/VTP-a)
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