जिला फरीदाबाद और गुड़गांव में अरावली सबसे अधिक संवेदनशील है. सन १९८० के बाद से अरावली क्षेत्र पर दबाव बढ़ा है. राजनैतिक निर्णयों की वजह से मानेसर से लेकर गुड़गांव में तावडू और फिरोजपुर झिरका से लेकर महरौली बॉर्डर तक के इलाके पारिस्थितिकी के विनाश के जद में आ चुके हैं. करीब ६ हज़ार वर्ग किलोमीटर के उक्त इलाके में भू-जल, टोपोग्राफी, फिज़ियोग्राफी, वन्य जीवन, वायु और जमीन की गुणवत्ता भी बुरी तरह से प्रभावित हुयी है. ४० वर्षों में गलत राजनैतिक निर्णयों के कारण इस इलाके में बसने वाले ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के सामने कई तरह के संकट खड़े हुए हैं. पुराने गुड़गांव से निकले फरीदाबाद, पलवल, नूह और खुद गुड़गांव की सन १९६१, १९७१, १९८१, १९९१, २००१ और २०११ की सेन्सस रिपोर्ट्स को देख कर इस इलाके की डेमोग्राफी में आये जबरदस्त उछाल का पता चलता है. फरीदाबाद और बल्लभगढ़ तक जी.टी रोड के दोनों ओर स्थापित इंडस्ट्रियल इलाके ने इस क्षेत्र के पर्यावरण को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया है. सन १९७५ से ही देश में पर्यावरण सम्बन्धी चेतना का विकास शुरू हुआ लेकिन हरयाणा के सम्बंधित महकमों को पुराने शहरों के विस्तार को लेकर मूर्खता का आलम बना रहा जो अभी तक कायम है. पुराने समय के लोग आबाद जगहों से संलग्न धरती पर समानांतर विस्तार के विरुद्ध रहे इसीलिये वे पुराना स्थान छोड़कर नया गाँव या शहर बसा लेते थे और पर्यावरण और पारिस्थतिकी बिलकुल ठीक रहती थी.

हिंदुस्तान टाइम्स के 13 फरवरी के अंक में प्रकाशित यह रिपोर्ट और सम्पादकीय लेख भविष्य की भयानक तस्वीर को उजागर करने के लिए पर्याप्त हैं. कमाल है हरयाना के पर्यावरणविद इस मामले में चुप क्यों हैं? इसलिए कि वे कमज़ोर हैं. वैसे इस फैसले से अरबों रुपए का वार-न्यारा होगा. भविष्य के नेताओं के लिए यह संशोधन एक गोल्ड माइन का काम करेगी.
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