खंडेला में तुरही नाद करते श्रीकृष्ण

श्री कृष्ण का आज जन्म दिवस है. इन्हें देव पुरुष माना गया है. बहुत सी चमत्कारिक शक्तियों का स्वामी इन्हें बताया गया. इनकी अक्षुण्ण छवि हिंदुस्तान की लोकस्मृति में पिछले ४५०० साल से बनी हुयी है. अपने जीवन काल में प्रत्येक व्यक्ति ने श्री कृष्ण से सम्बंधित अनेक चित्र, चित्रार्द्ध और चित्रभाषा से परिचय पाया होगा. मैनें भी सैंकड़ों की संख्या में इन्हें चित्रभाषा के रूप में देखा है और यह जान पाया कि कोई भी दो चित्रभाषा रूप एक जैसे नहीं है. मैं चित्रलिपियों की बाबत नहीं बल्कि मूल चित्रों की बात करना चाहता हूँ.

हमारे देश में भित्तिचित्र की दुनिया भी ऐसी है जिसमें रचना-कृति मौलिक ही मिलेगी. इन दो आयामी चित्रों के स्वरुप भिन्न है. इनमें श्री कृष्ण जैसे व्यक्ति के जीवन के क्षणों को जिस प्रकार से अभिव्यक्त किया गया इसमें मुद्रा, कला, भाव, अलंकार, श्रृंगार, रस और सौंदर्य टपकता है. श्री कृष्ण के साधारण चित्र भी सिर्फ लाइन-ड्राइंग और हल्की शेड्स में हैं और बहुत अलंकृत भी जैसे कि यहाँ पोस्ट किया गया चित्र जो मुझे खंडेला राजवंश के दुर्ग में भीतरी महल के शयन कक्ष से मिला जब मैं अप्रैल २००० में उस ओर यात्रा करते हुए निकल गया था.शयन कक्ष की छत और भित्ति के संधि-स्थल में धनुषाकार सतह में अंडाकार बोर्डर्स देकर जिस चितेरे ने इस कक्ष में तीस के करीब चित्रों की रचना की इनमें श्रीकृष्ण, साज़ हाथ में लेकर गीतिकाएं-नर्तकियां और शिकार दृश्य ही चित्रांकन के लिए चुने गए. रंग गाढे और चटख हैं और जहां तक मेरा ख्याल है अठारहवीं सदी-पूर्व में बनाये गये इस महल में चट्टानी-मृदा रंगों, इंडियन येलो और वानस्पतिक रंगों का इस्तेमाल मनोयोग और दक्षता के किया गया. इस चित्र में श्रीकृष्ण की सौम्य और श्रृंगारिक छवि को नायाब तरीके से प्रस्तुत किया गया. ख़ास फीचर है श्रीकृष्ण को तुरही बजाते दिखाना. इसे मैं दुर्लभ चित्र मानता हूँ क्योंकि तुरही का एक प्रयोग युद्ध का आरंभ करते समय होता है. इस चित्र और इसी स्थान पर बनाए गए अन्य चित्रों की वस्तुस्थिति अब मुझे मालूम नहीं है. इस बात को १८ बरस से अधिक हो गए हैं. जिस समय मैं उक्त महल में गया था वह दशकों से निर्जन था. सिर्फ एक चौकीदार मिला था जिसके पास खंडेला के इतिहास की पुस्तक थी. कहने लगा महीनों बाद कोई यहाँ आया है.

खंडेला जागीर काफी पुरानी है. मध्य काल में इसे खडगल तंवर ने बसाया था, ऐसा कुछ मालूम पड़ता है. बाद में रैवासा से एक शिलालेख मिला जिसके अनुसार ई.सन १६०४ में इस गद्दी पर गिरधर जी विराजमान हुए. वे मुग़ल बादशाह जहाँगीर के मनसबदार थे. प्रताप सिंह इस कुल का अंतिम ठिकानेदार था. ये लोग जयपुर के साथ रहे. १९४३ ई. में राम सिंह गद्दी पर बैठे जिनके बाद इस छोटी सी रियासत का विलय राजस्थान राज्य में किया गया

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