Need for decency towards sportspersons

ओलंपिक जैसे विश्वस्तरीय खेल स्पर्धाओं में जब हमारे खिलाड़ी कमतर मेडल लाते हैं अथवा हार जाते हैं तो हम अचानक ही या तो उनके हौसले पस्त करने के लिये उल-जुलूल वक्तव्य देते हैं अथवा उन्हें कोसने लगते हैं. उन पर तरह-तरह के आरोप लगाये जाते हैं और उनके साथ ऐसा बर्ताव करने लगते हैं जैसे उन्होंनें कोई भारी अपराध कर दिया है. इसके मुकाबले में दूसरे देशों में इस बाबत चुप्पी साधी जाती है और खिलाड़िओं को हतोत्साहित नहीं वरन अपने प्रदर्शन की वैज्ञानिक समीक्षा करने और उसे सुधारने का वक़्त दिया जाता है जिसमें वहां के शरीरक्रिया वैज्ञानिकों और आहार वैज्ञानिकों की पूरी मदद ली जाती है. हमारे यहाँ क्या होता है, यह बताने और समझने के लिये हमारे मीडिया में छपी रिपोर्टें ही काफी कहानी बयां करती दिखेंगी! हमें अपने दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन लाने की जरूरत है. ओलंपिक-२०१२ (लन्दन) से रजत और कांस्य पदक लाने वाले खिलाडिओं का स्वागत जिस प्रकार से एयरपोर्ट्स पर किया गया वह तो सब को दिखाई दे गया लेकिन जिन खिलाड़िओं ने उम्मीद से कम प्रदर्शन किया अथवा मेडल नहीं ले पाये, उनकी देश वापसी की क्लिप्स भी क्या मीडिया दिखायेगा ? अगर दिखायेगा तो आपको फर्क भी दिखाई दे जायेगा. कुछ लोग अभद्र टिप्पणियाँ करने से नहीं चूकेंगे. हमें इन खिलाड़िओं को 'हारे हुए' तो कभी कहना ही नहीं चाहिये. बल्कि कुछ कहे की बनिस्पत यह सोचना ज्यादा उपयुक्त होगा कि कड़ी प्रतिस्पर्धा में ये लोग पीछे रह गये लेकिन ओलंपिक खेलों के लिये मान्य स्तर को तो इन्होनें पार किया ही था. तब या तो हमारे प्रशिक्षण में कमी रह गयी या फिर तकनीक में. कोई भी खिलाड़ी जब ओलंपिक जैसी विश्व-स्तरीय खेल प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लेकर वापिस लौटता है तो वह बहुत कुछ सीख कर आता है. वहां उनके प्रशिक्षक भी होते हैं जो हरेक घटना पर बारीक नज़र रखते हैं. हमारे खेल अधिकारियों और वैज्ञानिक संस्थाओं का दायित्व बनता है कि वे इन दोनों से बारीकी से प्रत्येक बात पूछें और उसे रिकार्ड करके बनाये गये दस्तावेजों का विश्लेषण करें ताकि आगामी वर्षों में हम उन कमिओं को पूरा कर पायें जिनकी ओर वैज्ञानिकों ने हमारा ध्यान दिलाया है.प्रसंगवश ध्यान दिलाना चाहूँगा कि अमरीका से हर सप्ताह छपने वाली विज्ञान की विख्यात पत्रिका 'नेचर' ने अपने १९ जुलाई २०१२ के अंक में खेल से जुड़े वैज्ञानिक पहलुओं पर चार लेखों का प्रकाशन किया था. वे चारों लेख यहाँ संलग्न हैं ताकि भाई लोग भी पढ़ सकें. हमारे यहाँ के किसी भी वैज्ञानिक संस्थान अथवा मीडिया प्रकाशनों ने ऐसा प्रकाशन-उपक्रम करने का कोई प्रयास किया ही नहीं. आश्चर्य होता है इस उदासीनता पर ! ईस्वी सन १९७१ में एक ही बार राष्ट्रीय पोषण संस्थान ने 'खिलाड़िओं के लिये उपयुक्त आहार' नामक दस्तावेज़ तैयार किया था. उसके बाद कभी पता नहीं चला कि ऐसा कोई प्रकाशन दोबारा हुआ हो अथवा पूर्व-prakashit दस्तावेज़ को ही संशोधित कर पुनर्प्रकाशित किया गया हो. यह खेल और खिलाड़िओं के प्रति हमारी राष्ट्रीय उदासीनता का जीवंत उदाहरण है. हमारे देश में खेल आयोजन भारी मात्रा में रुपया बटोरने का स्वर्णिम अवसर होता है और कुछ नहीं. रही बात हरयाणा की खेल नीति की तो हमें नहीं मालूम कि इस दस्तावेज़ की निर्माण प्रक्रिया क्या रही थी, लेकिन, जब इसे सार्वजानिक किया गया तभी मालूम हुआ कि यह 'खेल और विज्ञान' की अपेक्षा 'खेल और धन' अथवा 'कामर्स' से सम्बंधित दस्तावेज़ ज्यादा है. इसे देख कर मुझे तो निराशा ही हुई थी. पता नहीं कितने प्रबुद्ध लोगों और पत्रकार भाईओं ने ठीक से इसका विश्लेषण किया होगा. लेकिन अब इस पर सार्वजनिक रूप से चर्चा होनी चाहिये नहीं तो विजेंदर जैसे मुक्केबाज खिलाड़िओं का भविष्य खेल में प्रगति दिखाने की अपेक्षा रुपया कमाना ही हो जायगा, राष्ट्रीय सम्मान और निज सम्मान गया भाड़ में!

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