भारत में चीनी, गुड़ और खांडसारी -Sugar, Jaggery and yellow sugar






मित्र लोग समझेंगें की मैं पंसारी हो गया या मंडी सुपरवाईजर. ऐसा नहीं है. एक स्वस्थ आदमी महीने भर में औसतन करीब १२०० ग्राम प्योर और रॉ शुगर का इस्तेमाल करता है. हमारे यहाँ पहले महायुद्ध के समय इम्पोर्टेड चीनी होती थी लेकिन बाद में अंग्रेजों की बदौलत और लाला गूजर मल मोदी की वजह से यूनाइटेड प्रोविन्सिस में चीनी मिल लगाई गयी थी. बहुत कम लोग यह जानते हैं कि मोदी जी के पुरखे पहले तो रोहतक के निकट दुजाना रियासत के बाशिंदे थे, फिर कानौड (वर्तमान महेंद्रगढ़) बसे जहां से वे बारास्ता पटियाला और लाहौर वर्तमान में मोदीनगर (सन १९३३) आ बसे.
२५०० वर्षों से शर्करा हमारे देश में बनती रही है और अनेक प्रकार से हमारी फोकलोर का हिस्सा भी है. हाल के वर्षों में निजी क्षेत्र के चीनी मिल मालिकों और उत्पादकों ने एक अजीब किस्म की लूट मचाई हुयी है. न केवल ये लोग राजनेताओं को ही भारी-भरकम रिश्वत देते हैं अपितु स्वयम भी राजनीति में सक्रिय रहकर सरकार में मंत्री वगैरह बनते रहे हैं. जैसे शरद पवार, गडकरी और इधर हरयाणा में विनोद शर्मा. ये लोग चीनी के दामों को स्टॉक रोककर नियंत्रित करते हैं, खुले बाज़ार में दाम ऊंचे रखते हैं, सरकार से करोड़ों रुपये की सब्सीडी लेते हैं, निर्यात के लिये अनुमति चाहते हैं ताकि लोकल मार्किट में अपने ही देशवासियों को ऊंचे दामों पर बीच सकें. अर्थात बे-ईमानी और बुराई के सारे मंसूबे बना कर उन पर अनैतिक रूप से अमल भी करते हैं. गन्ना देने वाले किसानों को समय पर भुगतान नहीं करते, सरकार पर सब्सीडी चालो रखने और उधार चुकाने के लिये सरकार से अनुदान मांगते हैं. देखा गया है कि अंग्रेजों के जमाने में हमारा किसान अधिक खुश था और उसे गुड़, शक्कर और खांड बनाने के मामले में कोई रोक-टोक नहीं करता था. गुड़ और खांडसारी बनाने के हमारे तरीके बेशक आदिम रहे हों लेकिन यदि न्यूट्रीशन वैज्ञानिकों की मानें तो उन्हीं पुराने तरीकों से बने उत्पाद सेहत के लिये नियामत थे, न कि वर्तमान पद्धति से बनी चीनी.
हमारे देश में चीनी मिलों के आने और दुर्नीति के कारण गुड़ और खांडसारी जैसे कुटीर उद्योग का सफाया हो गया है. इससे लोगों को अपनी सेहत ठीक रखने के लिये सही रूप वाली शुगर नहीं मिल रही और अधिकतर लोग प्योर शुगर और मिठाईयों की तरफ प्रवृत्त हो गये हैं जिसकी वजह से उन्हें गाल ब्लैडर में स्टोन होने के अलावा ब्लड शुगर लेवल की अधिकता परेशान किये रहती है. पहले तो मधुमेह वाले लोग भी अल्प मात्रा में रॉ-शुगर का इस्तेमाल कर लेते थे, लेकिन आजकल उन्हें ऐसे शुद्ध उत्पाद मिलते कहाँ हैं?
भारत में इस समय ५०० से ज्यादा की संख्या में शुगर मिल्स हैं. इन पर किसानों का ११ हज़ार करोड़ रुपया बकाया है. निर्यात की इजाजत न होने से देसी बाज़ार में चीनी के थोक मूल्य २३५० रुपये तक आ गये हैं लेकिन रिटेल में अभी दाम ३५ रुपया प्रति किलोग्राम से कम नहीं. शुगर लॉबी इसी बात से परेशान है कि निर्यात न होने से उन्हें देसी मार्किट से फायदा नहीं हो रहा. अर्थात जिस देश में ईंख होता है और आदिकाल से गुड़-शक्कर बनता रहा हो उनका शोषण करने की इन्हें खुली छूट मिले. ज्ञातव्य है कि विदेशी मंडियों में हमारी चीनी ८ या १० रुपये प्रति किलो ही बिकती है क्योंकि, इण्डोनेशिया, पकिस्तान और क्यूबा से प्रतिद्वंदिता है.
यही है हमारे राजनैतिक और आर्थिक शोषण का काला अध्याय.

Comments